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________________ पत्र ४१०,४११, ४१२, ४१३] विविध पत्र मादि संग्रह-२७वाँ वर्ष ३७३ यह निश्चय केवल सत्पुरुषको ठगनेके ही बराबर है। यद्यपि सत्पुरुष तो आकांक्षारहित है, अर्थात् उसका ठगा जाना संभव नहीं, परन्तु इस प्रकारसे प्रवृत्ति करनेवाले जीव अवश्य अपराधी होते हैं। इस बातपर बारम्बार तुम्हारे तथा तुम्हारे समागमकी इच्छा करनेवाले मुमुक्षुओंको लक्ष रखना चाहिये। यह बात कठिन है इसलिये नहीं हो सकती, यह कल्पना मुमुक्षुओंको अहितकारी है और त्याज्य है। ४१० बम्बई, चैत्र वदी १४ शुक्र. १९५० उपदेशकी आकांक्षा रहा करती है । उस प्रकारकी आकांक्षा मुमुक्षु जीवको हितकारी हैजागतिका विशेष हेतु है । ज्यों ज्यों जीवमें त्याग, वैराग्य और आश्रय-भक्तिका बल बढ़ता जाता है, त्यों त्यों सत्पुरुषके वचनका अपूर्व और अद्भुत स्वरूप भासित होता है; और बंध-निवृत्तिके उपाय सहजमें ही सिद्ध हो जाते हैं। यदि प्रत्यक्ष सत्पुरुषके चरणारविंदका संयोग कुछ समयतक रहे तो फिर उसके वियोगमें भी त्याग, वैराग्य और आश्रय-भक्तिकी बलवान धारा रहती है; नहीं तो मिथ्या देश, काल, संग आदिके संयोगसे सामान्य वृत्तिके जीव, त्याग, वैराम्य आदिके बलमें नहीं बढ़ सकते, अथवा मंद पड़ जाते हैं, अथवा उसका सर्वथा नाश ही कर देते हैं । ४११ बम्बई, वैशाख सुदी १ रवि. १९५० योगवासिष्ठके पढ़नेमें हानि नहीं है । आत्माको संसारका स्वरूप काराग्रहकी तरह बारम्बार प्रतिक्षण भासित हुआ करे, यह मुमुक्षुताका मुख्य लक्षण है। योगवासिष्ठ आदि जो जो ग्रंथ उस कारणके पोषक हैं, उनके विचार करनेमें हानि नहीं है । मूल बात तो यह है कि जीवको वैराग्य आनेपर भी जो उसकी अत्यंत शिथिलता है-ढीलापन है, उसे दूर करना, उसे अत्यंत कठिन मालूम होता है और चाहे जिस तरहसे भी हो, प्रथम इसे ही दूर करना योग्य है। ४१२ बम्बई, वैशाख सुदी ९ रवि. १९५० जिस व्यवसायसे जीवकी भाव-निद्रा न घटती हो, उस व्यवसायको यदि किसी प्रारब्धके योगसे करना पड़ता हो तो उसे फिर फिर पीछे हटकर, 'मैं महान् भयंकर हिंसायुक्त दुष्ट कामको ही किया करता हूँ', इस प्रकारसे फिर फिरसे विचारकर और 'जीवमें ढीलेपनसे ही प्रायः करके मुझे यह प्रतिबंध है', यह फिर फिरसे निश्चय करके, जितना बने उतना व्यवसायको कम करते हुए प्रवृत्ति हो, तो बोधका सफल होना संभव है। ४१३ बम्बई, वैशाख सुदी ९ रवि. १९५० यहाँ उपाधिरूप व्यवहार रहता है । प्रायः आत्म-समाधिकी स्थिति रहती है; तो भी व्यवहारके प्रतिबंधसे छुटनेकी बात बारम्बार स्मृतिमें आया करती है । उस प्रारब्धकी निवृत्ति होनेतक तो व्यवहारका प्रतिबंध रहना योग्य है, इसलिये समचित्तपूर्वक स्थिति रहती है।
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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