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________________ पत्र ४०८] विविध पत्र आदि संग्रह-२७वाँ वर्ष जा सकता है; परन्तु इस बातमें कुछ थोड़ा भी चित्त होनेका कारण नहीं । यह निष्फल बात है । इसमें आत्माके कल्याणका कोई मुख्य प्रसंग नहीं है। ऐसी कथा मुख्य प्रसंगकी विस्मृतिका ही कारण होती है, इसलिये उस प्रकारके विचारके अथवा खोजके निर्णय करनेकी इच्छा करनेकी अपेक्षा उसका त्याग करना ही उत्तम है; और उसके त्याग होनेपर उसका सहजमें निश्चय हो जाता है। जिससे आत्मामें विशेष आकुलता न हो वैसे रहना । जो होने योग्य होगा वह तो होकर रहेगा, और आकुलता करनेसे भी जो होने योग्य होगा वह तो अवश्य होगा, उसके साथ आत्मा भी अपराधी बनेगी। ४०८ बम्बई, चैत्र वदी ११ भौम. १९५० जिस कारणके विषयमें लिखा था, चित्त अभी उस कारणके विचारमें है; और अभीतक उस विचारके चित्तके समाधानरूप अर्थात् पूर्ण न हो सकनेसे तुम्हें पत्र नहीं लिखा । तथा कोई प्रमाद-दोष जैसा कोई प्रसंग-दोष रहा करता है, जिसके कारण कुछ भी परमार्थकी बात लिखनेके संबंधमें चित्त घबड़ाकर लिखते हुए एकदम रुक जाता है। तथा जिस कार्यकी प्रवृत्ति रहती है, उस कार्यकी प्रवृत्तिमें और अपरमार्थके प्रसंगमें मानों मेरेसे यथायोग्य उदासीन बल नहीं होता । ऐसा लगनेसे, अपने दोषके विचारमें पड़ जानेसे पत्र लिखना रुक जाता है; और प्रायः करके उस विचारका समाधान नहीं हुआ, ऐसा जो ऊपर लिखा है, उसका यही कारण है। यदि किसी भी प्रकारसे बने तो इस कष्टरूप संसारमें अधिक व्यवसाय न करना-सत्संग करना ही योग्य है। मुझे ऐसा लगता है कि जीवको मूलरूपसे देखते हुए यदि मुमुक्षुता आई हो तो नित्य प्रति उसका संसार-बल घटता ही जाय । संसारमें धन आदि संपत्तिका घटना या न घटना तो अनियत है, किन्तु संसारके प्रति जीवकी जो भावना है वह यदि मंद होती चली जाय, तो वह अनुक्रमसे नाश होने योग्य हो । इस कालमें प्रायः करके यह बात देखनेमें नहीं आती । किसी भिन्न स्वरूपमें मुमुक्षुको और किसी भिन्न ही स्वरूपमें मुनि वगैरहको देखकर विचार आता है कि इस प्रकारके संगसे जीवकी ऊर्ध्वदशा होना योग्य नहीं, किन्तु अधोदशा होना ही योग्य है। फिर जिसे सत्संगका कुछ समागम हुआ है, काल-दोषसे ऐसे जीवकी व्यवस्थाको भी पलटनेमें देर नहीं लगती। इस प्रकार स्पष्ट देखकर चित्तमें खेद होता है; और अपने चित्तकी व्यवस्था देखकर मुझे भी ऐसा होता है कि मुझे किसी भी प्रकारसे यह व्यवसाय करना योग्य नहीं-अवश्य योग्य नहीं। जरूर-अत्यंत ज़रूर-इस जीवका कुछ प्रमाद है। नहीं तो जिसे प्रगटरूपसे जान लिया है, ऐसे जहरको पीनेमें जीवकी प्रवृत्ति कैसे हो सकती है ! अथवा यदि ऐसा न हो तो फिर उसमें उदासीन प्रवृत्ति ही हो । तो भी उस प्रवृत्तिकी अब यदि किसी प्रकारसे भी समाप्ति हो तो यह होने योग्य है, नहीं तो जरूर किसी भी प्रकारसे जीवका ही दोष है। अधिक नहीं लिखा जा सकता, इससे चित्तमें खेद होता है । अथवा तो प्रगटरूपसे किसी मुमुक्षुको, इस जीवका दोष भी.जितनी प्रकारसे बने उतनी प्रकारसे प्रकट करके, जीवका उतना तो खेद दूर करना चाहिये, और उस प्रकट दोषकी परिसमासिके लिये उसके संगरूप उपकारकी इच्छा करना चाहिये ।
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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