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________________ ३७० श्रीमद् राजचन्द्र [पत्र ४०७ पूर्वकर्म दो प्रकारके हैं। अथवा जीवसे जो जो कर्म किये जाते हैं, वे दो प्रकारसे किये जाते हैं । एक कर्म इस तरहके हैं कि उनकी काल आदिकी जिस तरह स्थिति है, वह उसी प्रकारसे भोगी जा सके । दूसरे कर्म इस प्रकारके हैं कि जो कर्म ज्ञानसे--विचारसे-निवृत्त हो सकते हों। ज्ञानके होनेपर भी जिस तरहके कर्मोको अवश्य भोगना चाहिये, वे प्रथम प्रकारके कर्म कहे हैं; और जो ज्ञानसे दूर हो सकते हैं, वे दूसरे प्रकारके कर्म हैं। केवलज्ञानके उत्पन्न होनेपर भी देह रहती है । उस देहका रहना कोई केवलज्ञानीकी इच्छासे नहीं, परन्तु प्रारब्धसे होता है । इतना सम्पूर्ण ज्ञान-बल होनेपर भी उस देहकी स्थितिके वेदन किये बिना केवलज्ञानी भी नहीं छूट सकता, ऐसी स्थिति है । यद्यपि उस प्रकारसे छूटनेके लिये कोई ज्ञानी-पुरुष इच्छा नहीं करता, परन्तु यहाँ कहनेका अभिप्राय यह है कि ज्ञानी-पुरुषको भी वह कर्म भोगना योग्य है। तथा अंतराय आदि अमुक कर्मकी इस प्रकारकी व्यवस्था है कि वह ज्ञानी-पुरुषको भी भोगनी योग्य हैअर्थात् ज्ञानी-पुरुष भी उस कर्मको भोगे बिना निवृत्त नहीं कर सकता । सब प्रकारके कर्म इसी तरहके हैं कि वे फलरहित नहीं जाते; केवल उनकी निवृत्तिके क्रममें ही फेर होता है। एक कर्म तो जिस प्रकारसे स्थिति वगैरहका बंध किया है, उसी प्रकारसे भोगने योग्य होता है। दूसरा कर्म ऐसा होता है, जो जीवके ज्ञान आदि पुरुषार्थ-धर्मसे निवृत्त होता है । ज्ञान आदि पुरुषार्थधर्मसे निवृत्त होनेवाले कर्मकी निवृत्ति ज्ञानी-पुरुष भी करते हैं। परन्तु भोगने योग्य कर्मको ज्ञानी-पुरुष सिद्धि आदि प्रयलसे निवृत्त करनेकी इच्छा न करे, यह संभव है। ___ कर्मको यथायोग्यरूपसे भोगनेमें ज्ञानी-पुरुषको संकोच नहीं होता । कोई अज्ञानदशा होनेपर भी अपनी ज्ञानदशा समझनेवाला जीव कदाचित् भोगने योग्य कर्मको भोगना न चाहे, तो भी छुटकारा तो भोगनेपर ही होता है, ऐसा नियम है । तथा यदि जीवका किया हुआ कृत्य बिना भोगे ही फलरहित चला जाता हो, तो फिर बंध-मोक्षकी व्यवस्था भी कहाँसे बन सकती है ? जो वेदनीय आदि कर्म हों तो उन्हें भोगनेकी हमें अनिच्छा नहीं होती । यदि कदाचित् अनिच्छा होती हो तो चित्तमें खेद हो कि जीवको देहाभिमान है; उससे उपार्जित कर्म भोगते हुए खेद होता है, और उससे अनिच्छा होती है। मंत्र आदिसे, सिद्धिसे और दूसरे उस तरहके अमुक कारणोंसे अमुक चमत्कारका हो सकना असंभव नहीं है। फिर भी जैसे हमने ऊपर बताया है वैसे भोगने योग्य जो 'निकाचित कर्म ' हैं वे किसी भी प्रकारसे दूर नहीं हो सकते । कचित् अमुक 'शिथिल कर्म' की निवृत्ति होती है, परन्तु ऐसा नहीं है कि वह कुछ उपार्जित करनेवालेके वेदन किये बिना निवृत्त हो जाता है; आकृतिके फेरसे उस कर्मका वेदन होता है। ___कोई एक इस प्रकारका 'शिथिल कर्म' होता है कि जिसमें अमुक समय चित्तकी स्थिरता रहे तो वह निवृत्त हो जाय । उस तरहके कर्मका उन मंत्र आदिमें स्थिरताके संबंधसे निवृत्त होना संभव है। अथवा किसीके किसी पूर्वलाभका कोई इस प्रकारका बंध होता है जो केवल उसकी थोडीसी ही कृपासे फलीभूत हो जाय-यह भी एक सिद्धि जैसा है। तथा यदि कोई अमुक मंत्र आदिके प्रयत्नमें हो, और अमुक पूर्वातरायके नष्ट होनेका प्रसंग समीपमें हो, तो भी मंत्र आदिसे कार्यकी सिद्धिका होना माना
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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