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________________ ३४२ श्रीमद् राजचन्द्र [पत्र ३६०, ३६१, ३६२, ३६३ ३६० बम्बई, चैत्र सुदी ९, १९४९ (१) __ आरंभ, परिग्रह, असत्संग आदि कल्याणमें प्रतिबंध करनेवाले कारणोंका, जैसे बने तैसे कम ही परिचय हो, और उनमें उदासीनता प्राप्त हो—यही विचार हालमें मुख्यरूपसे रखना योग्य है । हालमें उस तरफ श्रावकों आदिके होनेवाले समागमके संबंधमें समाचार पढ़े हैं । उस प्रसंगमें जीवको रुचि अथवा अरुचि उत्पन्न नहीं हुई, इसे श्रेयका कारण जानकर, उसका अनुसरण करके, निरंतर प्रवृत्ति करनेका परिचय करना योग्य है । और उस असत्संगका परिचय, जैसे कम हो वैसे, उसकी अनुकंपाकी इच्छा करके रहना योग्य है । जैसे बने वैसे सत्संगके संयोगकी इच्छा करना और अपने दोषको देखना योग्य है । ३६१ बम्बई, चैत्र वदी १ रवि. १९४९ धार तरवारनी सोहली दोहली, चौदमा जिनतणी चरणसेवा धारपर नाचता देख वाजीगरा, सेवना-धारपर रहे न देवा । (आनंदघन-अनंतजिन-स्तवन ). इस प्रकारके मार्गको किस कारणसे अत्यंत कठिन कहा है, यह विचारने योग्य है । ३६२ बम्बई, चैत्र वदी ९ रवि. १९४९ जिसे संसारसंबंधी कारणके पदार्थोकी प्राप्ति सुलभतासे निरन्तर हुआ करे, और कोई बंधन न हो, यदि ऐसा कोई पुरुष है, तो उसे हम तीर्थकरतुल्य मानते हैं । परन्तु प्रायः इस प्रकारकी सुलभप्राप्तिके योगसे जीवको अल्प कालमें संसारसे अत्यंत वैराग्य नहीं आता, और स्पष्ट आत्मज्ञान उत्पन्न नहीं होता—ऐसा जानकर जो कुछ उस सुलभ-प्राप्तिको हानि करनेवाला संयोग मिलता है, उसे उपकारका कारण जानकर, सुखपूर्वक रहना ही योग्य है। ३६३ बम्बई, चैत्र वदी ९ रवि. १९४९ संसारी-वेशसे रहते हुए कौनसी स्थितिसे व्यवहार करें तो ठीक हो, ऐसा कदाचित् भासित हो तो भी उस व्यवहारका करना तो प्रारब्धके ही आधीन है । किसी प्रकारके किसी राग, द्वेष अथवा अज्ञानके कारणसे जो न होता हो, उसका कारण उदय ही मालूम होता है। जलमें स्वाभाविक शीतलता है, परन्तु सूर्य आदिके तापके संबंधसे वह उष्ण होता हुआ दिखाई १ तलवारकी धारपर चलना तो सहज है, परन्तु चौदहवें तीर्थकरके चरणोंकी सेवा करना कठिन है। बाजीगर लोग तलवारकी धारपर नाचते हुए देखे जाते है, परन्तु प्रमुके चरणोंकी सेवारूप धारपर तो देवता लोग भी नहीं ठहर सकते।
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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