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________________ विविध पत्र आदि संग्रह-२६वाँ वर्ष भव नहीं कर सकता, और इस जीव नामक पदार्थके सिवाय दूसरे किसी भी पदार्थमें ज्ञायकता संभव नहीं हो सकती । इस प्रकार अत्यंत अनुभवका कारण जिसमें 'ज्ञायकता' लक्षण है, उस पदार्थको तीर्थकरने जीव कहा है। शब्द आदि पाँच विषयसंबंधी अथवा समाधि आदि योगसंबंधी जिस स्थितिमें सुख होना संभव है, उसे भिन्न भिन्नरूपसे देखनेसे अन्तमें केवल उन सबमें सुखका कारण एक जीव पदार्थ ही संभवित है । इसलिये तीर्थकरने जीवका ' सुखभास' नामका लक्षण कहा है; और व्यवहार दृष्टांतसे निद्राद्वारा वह प्रगट मालूम होता है । जिस निद्रामें दूसरे सब पदार्थोंसे रहितपना है, वहाँ भी ' मैं सुखी हूँ' ऐसा जो ज्ञान होता है, वह बाकी बचे हुए जीव पदार्थका ही है; दूसरा और कोई वहाँ विद्यमान नहीं है, और निद्रामें सुखका आभास होना तो अत्यंत स्पष्ट है । वह जिससे भासित होता है, वह लक्षण जीव नामके पदार्थके सिवाय दूसरी किसी भी जगह नहीं देखा जाता । ____यह स्वादरहित है, यह मीठा है, यह खट्टा है, यह खारा है, मैं इस स्थितिमें हूँ, मैं ठंडमें ठिर रहा हूँ, गरमी पड़ रही हैं, मैं दुःखी हूँ, मैं दुःखका अनुभव करता हूँ-इस प्रकारका जो स्पष्टज्ञानवेदनज्ञान–अनुभवज्ञान-अनुभवपना यदि किसीमें भी हो तो वह जीव-पदमें ही है, अथवा वह जिसका लक्षण हो वह पदार्थ जीव ही होता है, यही तीर्थकर आदिका अनुभव है। __स्पष्ट प्रकाशपना-अनंतानंतकोटी तेजस्वी दीपक, मणि, चन्द्र, सूर्य आदिकी कांति—जिसके प्रकाशके बिना प्रगट होनेके लिये समर्थ नहीं है; अर्थात् वे सब अपने आपको बताने अथवा जाननेके योग्य नहीं हैं, जिस पदार्थके प्रकाशमें चैतन्यरूपसे वे पदार्थ जाने जाते हैं- स्पष्ट भासित होते हैंवे पदार्थ प्रकाशित होते हैं वह पदार्थ जो कोई है तो वह एक जीव ही है । अर्थात् उस जीवका वह लक्षण–प्रगटरूपसे स्पष्ट प्रकाशमान अचल निराबाध प्रकाशमान चैतन्य-उस जीवके प्रति उपयोग लगानेसे प्रगट-प्रगटरूपसे दिखाई देता है। ये जो लक्षण कहे हैं, इन्हें फिर फिरसे विचार करनेसे जीव निराबाधरूपसे जाना जाता है । जिसके जाननेसे जीव जाना गया है, उन लक्षणोंको तीर्थकर आदिने इस प्रकारसे कहा है। ३५९ बम्बई, चैत्र सुदी ६ गुरु. १९४९ उपाधिका योग विशेष रहता है। जैसे जैसे निवृत्तिके योगकी विशेष इच्छा होती जाती है, वैसे वैसे उपाधिकी प्राप्तिका योग विशेष दिखाई पड़ता है । चारों तरफसे उपाधिकी ही भीड़ है । कोई ऐसी दिशा इस समय मालूम नहीं होती कि जहाँ इसी समय इसमेंसे छूटकर चले जाना हो तो किसीके अपराधी न गिने जॉय । छूटनेका प्रयत्न करते हुए किसीके मुख्य अपराधमें पकड़ा जाना स्पष्ट संभव दिखाई देता है; और यह वर्तमान अवस्था उपाधि-रहितपनेके अत्यंत योग्य है । प्रारब्धकी व्यवस्थाका इसी प्रकार प्रबंध किया गया होगा।
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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