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________________ पत्र ३६४, ३६५, ३६६] विविध पत्र आदि संग्रह-२६वा वर्ष ३४३ देता है; उस तापका संबंध दूर हो जानेपर वही जल फिर शीतल हो जाता है । बीचमें जो जल शीतलतासे रहित मालूम होता था, वह केवल तापके संयोगसे ही मालूम होता था । ऐसे ही हमें भी प्रवृत्तिका संयोग है, परन्तु हालमें तो उस प्रवृत्तिके वेदन किये बिना कोई दूसरा उपाय नहीं है। ३६४ बम्बई, चैत्र वदी ९, १९४९ जो मु. यहाँ चातुर्मासके लिये आना चाहते हैं, यदि उनकी आत्मा दुःखित न हो तो उनसे कहना कि उन्हें इस क्षेत्रमें आना निवृत्तिरूप नहीं है। कदाचित् यहाँ उन्होंने सत्संगकी इच्छासे आनेका विचार किया हो तो वह संयोग बनना बहुत कठिन है, क्योंकि वहाँ हमारा आना-जाना बने, यह संभव नहीं है । यहाँ ऐसी परिस्थिति है कि यहाँ उन्हें प्रवृत्तिके बलवान कारणोंकी ही प्राप्ति हो, ऐसा समझकर यदि उन्हें कोई दूसरा विचार करना सुगम हो तो करना योग्य है । हालमें तुम्हारी वहाँ कैसी दशा रहती है ! वहाँ विशेषरूपसे सत्संगका समागम करना योग्य है । आत्मस्थित. ३६५ बम्बई, वैशाख वदी ६ रवि. १९४९ (१) प्रत्येक प्रदेशसे जीवके उपयोगको आकर्षित करनेवाले संसारमें, एक समयके लिये भी अवकाश लेनेकी ज्ञानी पुरुषोंने हाँ नहीं कही-इस विषयका सर्वथा निषेध ही किया है। उस आकर्षणसे यदि उपयोग अवकाश प्राप्त करे तो वह उसी समय आत्मरूप हो जाता है--उसी समय आत्मामें वह उपयोग अनन्य हो जाता है । इत्यादि अनुभव-वार्ता जीवको सत्संगके दृढ़ निश्चयके बिना प्राप्त होनी अत्यंत कठिन है। उस सत्संगको जिसने निश्चयरूपसे जान लिया है, इस प्रकारके पुरुषको भी इस दुःषम कालमें उस सत्संगका संयोग रहना अत्यंत कठिन है । (२) जिस चिंताके उपद्रवसे तुम घबड़ाते हो, उस चिंताका उपद्रव कोई शत्रु नहीं है। प्रेम-भक्तिसे नमस्कार । ३६६ बम्बई, वैशाख वदी ८ भौम. १९४९ जहाँ कोई उपाय नहीं, वहाँ खेद करना योग्य नहीं है। ईश्वरेच्छाके अनुसार जो हो उसमें समता रखना ही योग्य है; और उसके उपायका यदि कोई विचार सूझ पड़े तो उसे करते रहना, मात्र इतना ही अपना उपाय है। कचित् संसारके प्रसंगोंमें जबतक अपनेको अनुकूलता रहा करती है, तबतक उस संसारका स्वरूप विचारकर त्याग करना योग्य है, प्रायः इस प्रकारका विचार हृदयमें आना कठिन है। उस संसारमें जब अधिकाधिक प्रतिकूल प्रसंगोंकी प्राप्ति होती है, तो कदाचित् जीवको पहिले वे रुचिकर न होकर पीछेसे वैराग्य आता है; उसके बाद आत्म-साधनकी सूझ पड़ती है । और परमात्मा
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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