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________________ ३१४ श्रीमद् राजचन्द्र [पत्र ३२४ परमार्थकी प्राप्ति होती है ऐसे पुरुषोंका संयोग दुर्लभ ही है, परन्तु ऐसे कालमें तो यह अत्यंत ही दुर्लभ हो रहा है । जीवोंकी परमार्थवृत्ति क्षीण होती जा रही है, इस कारण उसके प्रति ज्ञानी पुरुषोंके उपदेशका बल कम होता जाता है, और इससे परम्परासे वह उपदेश भी क्षीण होता जा रहा हैअर्थात् अब क्रम क्रमसे परमार्थ-मार्गके व्यवच्छेद होनेका काल आ रहा है। इस कालमें, और उसमें भी आजकल लगभग सौ वर्षोंसे मनुष्योंकी परमार्थवृत्ति बहुत क्षीण हो गई है, और यह बात प्रत्यक्ष है। सहजानंदस्वामीके समयतक मनुष्योंमें जो सरल वृत्ति थी, उसमें और आजकी सरल वृत्तिमें महान् अन्तर हो गया है। उस समयतक मनुष्योंकी वृत्तिमें कुछ कुछ आज्ञाकारित्व, परमार्थकी इच्छा, और तत्संबंधी निश्चयमें दृढ़ता-ये बातें जैसी थीं वैसी आज नहीं रही हैं। इस कारण आज तो बहुत ही क्षीणता आ गई है । यद्यपि अभी इस कालमें परमार्थवृत्तिका सर्वथा व्यवच्छेद नहीं हुआ, तथा भूमि भी सत्पुरुषोंसे रहित नहीं हुई है, तो भी यह काल उसकालकी अपेक्षा अधिक विषम है-बहुत विषम है-ऐसा मानते हैं। इस प्रकारका कालका स्वरूप देखकर हृदयमें अंखडरूपसे महान् अनुकंपा रहा करती है । किसी भी प्रकारसे जीवोंकी अत्यंत दुःखकी निवृत्तिका उपाय जो सर्वोत्तम परमार्थ, यदि उस परमार्थसंबंधी वृत्ति कुछ बढ़ती जाती हो, तो ही उसे सत्पुरुषकी पहिचान होती है, नहीं तो नहीं होती। वह वृत्ति फिरसे जीवित हो, और किन्हीं भी जीवोंको--बहुतसे जीवोंको-परमार्थसंबंधी मार्ग प्राप्त हो, ऐसी अनुकंपा अखंडरूपसे रहा करती है, तो भी ऐसा होना हम बहुत दुर्लभ मानते हैं, और उसके कारण भी ऊपर बता दिये हैं। जिस पुरुषका चौथे कालमें मिलना दुर्लभ था, ऐसे पुरुषका संयोग इस कालमें हुआ है, परन्तु जीवोंकी परमार्थसंबंधी चिंता अत्यंत क्षीण हो गयी है; अर्थात् उस पुरुषकी पहिचान होना अत्यंत कठिन है । उसमें भी गृहवास आदिके प्रसंगमें उस पुरुषकी स्थिति देखकर तो जीवको प्रतीति आना और भी दुर्लभ है—अत्यंत ही दुर्लभ है; और यदि कदाचित् प्रतीति आ भी गई तो हालमें जो उसका प्रारब्धका क्रम रहता है, उसे देखकर उसका निश्चय रहना दुर्लभ है; और यदि कदाचित् उसका निश्चय भी हो जाय तो भी उसका सत्संग रहना दुर्लभ है; और परमार्थका जो मुख्य कारण है वह तो यही है; उसे ऐसी स्थितिमें देखकर ऊपर बताये हुए कारणोंको अधिक बलवानरूपसे देखते हैं, और यह बात देखकर फिर फिरसे अनुकंपा उत्पन्न हो आती है। ईश्वरेच्छासे जिस किसी जीवका भी कल्याण वर्तमानमें होना होगा, वह तो उसी तरह होगा, और हम इस विषयमें ऐसा भी मानते हैं कि वह दूसरेसे नहीं परन्तु हमसे ही होगा । परन्तु हम ऐसा मानते हैं कि जैसी हमारी अनुकंपायुक्त इच्छा है, जिससे जीवोंको वैसा परमार्थ-विचार और परमार्थ-प्राप्ति हो सके, वैसा संयोग हमें किसी प्रकारसे कम ही हुआ है। हम ऐसां मानते हैं कि यदि यह देह गंगा यमुना आदिके प्रदेशमें अथवा गुजरात देशमें उत्पन्न हुई होती-वहाँ वृद्धिंगत हुई होती तो यह एक बलवान कारण होता । तथा हम ऐसा मानते हैं कि यदि प्रारब्धमें गृहवास बाकी न होता और ब्रह्मचर्य या वनवास होता तो यह भी एक दूसरा बलवान कारण होता । कदाचित् गृहवास बाकी होता और उपाधि
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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