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________________ पत्र ३२४] विविध पत्र आदि संग्रह-२५वाँ वर्ष ३१५ योगरूप प्रारब्ध न होता, तो वह परमार्थका तीसरा बलवान कारण होता, ऐसा मानते हैं । पहिले कहे हुए दो कारण तो हो चुके हैं, इसलिये अब उनका निवारण नहीं हो सकता, फिर भी अभी ऐसा होना बाकी है कि तीसरा उपाधि-योगरूप प्रारब्ध शीघ्रतासे निवृत्त हो—उसका निष्काम करुणापूर्वक वेदन हो। किन्तु यह विचार भी अभी योग्य स्थितिमें है; अर्थात् ऐसी ही इच्छा रहती है कि उस प्रारब्धका सहजमें ही प्रतीकार हो जाय, अथवा उस प्रकारका उदय विशेष उदयमें आकर थोड़े ही कालमें समाप्त हो जाय, तो ही वैसी निष्काम करुणा रह सकती है। और इन दो प्रकारोंमें तो हालमें उदासीनतासे अर्थात् सामान्यरूपसे ही रहना है, ऐसी आत्म-भावना है; और इस संबंधमें बारम्बार महान् विचार रहा करता है । जबतक उपाधि-योग समाप्त नहीं होता तबतक किस प्रकारके सम्प्रदायपूर्वक परमार्थ कहना, यह मौनरूपसे और अविचार अथवा निर्विचारमें ही रक्खा है-अर्थात् हालमें यह विचार करनेके विषयमें उदास भाव रहता है। आत्माकार स्थिति हो जानेसे प्रायः करके चित्त एक अंश भी उपाधि-योगका वेदन करने योग्य नहीं है, फिर भी वह तो जिस प्रकारसे सहन करनेको मिले उसी प्रकारसे सहन करना है, इसलिये उसमें समाधि है। परन्तु किन्हीं जीवोंसे परमार्थसंबंधी प्रसंग पड़ता है, तो उन्हें उस उपाधि-योगके कारण हमारी अनुकंपाके अनुसार लाभ नहीं मिलता; और तुम्हारी लिखी हुई जो कुछ परमार्थसंबंधी बात आती है वह भी चित्तमें मुश्किलसे ही प्रवेश हो पाती है, क्योंकि हालमें उसका उदय नहीं है। इस कारण पत्र आदिके प्रसंगसे भी तुम्हारे सिवाय दूसरे मुमुक्षु जीवोंको इच्छित अनुकंपासे परमार्थवृत्ति नहीं दी जा सकती, यह बात भी चित्तको बहुत बार लगा करती है। चित्तके बंधनयुक्त न हो सकनेके कारण, जो जीव संसारके संबंधमें स्त्री आदिरूपसे प्राप्त हुए हैं, उन जीवोंकी इच्छाको भी क्लेशित करनेकी नहीं होती, अर्थात् उसे भी अनुकंपासे, और माँ बाप आदिके उपकार आदि कारणोंसे उपाधि-योगका बलवान रीतिसे सहन करते हैं । और जिस जिसकी जो कामना है, उस उस प्रारब्धके उदयमें जिस प्रकारसे वह कामना प्राप्त होनी है, जबतक वह उस प्रकारसे न हो, तबतक निवृत्ति ग्रहण करते हुए भी जीव उदासीन ही रहता है । इसमें किसी प्रकारकी हमारी कामना नहीं है, हम तो इस सबमें निष्काम ही हैं, फिर भी उस प्रकारके बंधन रखनेरूप प्रारब्ध उदयमें रहता है; इसे भी दूसरे मुमुक्षुकी परमार्थवृत्ति उत्पन्न करनेमें हम विघ्नरूप समझते हैं । ____ जबसे तुम हमें मिले हो तभीसे यह बात-जो ऊपर अनुक्रमसे लिखी है—कहनेकी इच्छा थी, परन्तु उस उस प्रकारसे उसका उदय नहीं था, इसलिये ऐसा नहीं बना; अब वह उदय बताने योग्य था इसलिये इसे संक्षेपमें कह दिया है, इसे तुम्हें बारम्बार विचारनेके लिये लिखा है । इसमें बहुत विचार करके सूक्ष्मरूपसे हृदयमें धारण करने योग्य बात लिखी है। तुम और गोशलीआके सिवाय इस पत्रके समाचार जानने योग्य दूसरे जीव हालमें तुम्हारे पास नहीं हैं, इतनी बात स्मरण रखनेके लिये ही लिखी है । किसी बातमें, शब्दोंके संक्षिप्त होनेके कारण, यदि कुछ ऐसा मालूम दे कि अभी हमें किसी प्रकारकी संसार-सुख-वृत्ति बाकी है, तो उस अर्थको फिरसे विचारना योग्य है । यह निश्चय
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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