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________________ ३१३ पत्र ३२४] विविध पत्र आदि संग्रह-२५वाँ वर्ष तीर्थकरने भी ऐसा ही कहा है; और वह हालमें उसके आगममें भी है, ऐसा ज्ञात है। कदाचित् यदि ऐसे कहा हुआ अर्थ आगममें नहीं भी हो, तो भी जो शब्द ऊपर कहे हैं वे आगम ही हैंजिनागम ही हैं। ये शब्द राग, द्वेष और अज्ञान इन तीनों कारणोंसे रहित, प्रगटरूपसे लिखे गये हैं, इसलिये सेवनीय हैं। थोडेसे वाक्योंमें ही लिख डालनेके लिये विचार किया हुआ यह पत्र विस्तृत हो गया है, और यद्यपि यह बहुत ही संक्षेपमें लिखा है, फिर भी बहुत प्रकारसे अपूर्ण स्थितिसे यह पत्र अब समाप्त करना पड़ता है। तुम्हें तथा तुम्हारे जैसे दूसरे जिन जिन भाईयोंका तुम्हें समागम है उन्हें, उस प्रकारके प्रसंगमें इस पत्रके प्रथम भागको विशेषरूपसे स्मरणमें रखना योग्य है; और बाकीका दूसरा भाग तुम्हें और दूसरे अन्य मुमुक्षु जीवोंको बारम्बार विचारना योग्य है। यहाँ समाधि है। "प्रारब्धदेही." ३२४ बम्बई, श्रावण वदी १४ रवि. १९४८ स्वस्ति श्रीसायला ग्राम शुभस्थाने स्थित, परमार्थके अखंड निश्चयी, निष्कामस्वरूप ( ........ ) के बारम्बार स्मरणरूप, मुमुक्षु पुरुषोंसे अनन्य प्रेमसे सेवन करने योग्य, परम सरल, और शान्तमूर्ति ऐसे श्री " सुभाग्य" के प्रति श्री " मोहमयी" स्थानसे निष्कामस्वरूप ऐसे स्मरणरूप सत्पुरुषका विनयपूर्वक यथायोग्य पहुँचे । जिसमें प्रेम-भक्ति प्रधान निष्कामरूपसे लिखी है ऐसे तुम्हारे लिखे हुए बहुतसे पत्र अनुक्रमसे प्राप्त हुए हैं । आत्माकार-स्थिति और उपाधि-योगरूप कारणसे केवल इन पत्रोंकी पहुँच मात्र लिख सका हूँ। यहाँ भाई रेवाशंकरकी शारीरिक स्थिति यथायोग्य न रहनेसे, और व्यवहारसंबंधी कामकाजके बढ़ जानेसे उपाधि-योग भी विशेष रहता आया है, और रहा करता है। इस कारण इस चौमासेंमें बाहर निकलना अशक्य हो गया है; और इसके कारण तुम्हारा निष्काम समागम प्राप्त नहीं हो सका, और फिर दिवालीके पहिले उस प्रकारका संयोग प्राप्त होना संभव भी नहीं है। तुम्हारे लिखे हुए बहुतसे पत्रोंमें जीव आदि स्वभाव और परभावके बहुतसे प्रश्न लिखे हुए आते थे, इसी कारणसे उनका भी प्रत्युत्तर नहीं लिखा जा सका। इस बीचमें दूसरे भी जिज्ञासुओंके बहुतसे पत्र मिले हैं, प्रायः करके इसी कारणसे ही उनका भी उत्तर नहीं लिखा जा सका। हालमें जो उपाधि-योग रहता है, यदि उस योगके प्रतिबंधके त्यागनेका विचार करें तो त्याग हो सकता है; तथापि उस उपाधि-योगके सहन करनेसे जिस प्रारब्धकी निवृत्ति होती है, उसे उसी प्रकारसे सहन करनेके सिवाय दूसरी इच्छा नहीं होती; इसलिये इसी योगसे उस प्रारब्धको निवृत्त होने देना योग्य है, ऐसा समझते हैं, और ऐसी ही स्थिति है। शास्त्रों में इस कालको क्रम क्रमसे क्षीण होनेके योग्य कहा है; और इस प्रकारसे कम क्रमसे हुआ भी करता है। मुख्यरूपसे यह क्षीणता परमार्थसंबंधी क्षीणता ही कही है। जिस कालमें अत्यन्त कठिनतासे परमार्थकी प्राप्ति हो, उस कालको दुःषम काल कहना चाहिये । यद्यपि जिससे सर्वकालमें
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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