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________________ ૨૮૮ श्रीमद् राजचन्द्र [पत्र २८३, २८४, २८५ (२) विशेष करके वैराग्य प्रकरणमें, श्रीरामको जो अपने वैराग्यके कारण मालूम हुए, वे बताये हैं, वे फिर फिरसे विचार करने जैसे हैं। २८३ बम्बई, फाल्गुन सुदी ११॥ गुरु. १९४८ चि. चंदुके स्वर्गवासकी खबर पढ़कर खेद हुआ.। जो जो प्राणी देह धारण करते हैं, वे सब देहका त्याग करते हैं, यह बात हमें प्रत्यक्ष अनुभवसिद्ध दिखाई देती है। ऐसा होनेपर भी अपना चित्त इस देहकी अनित्यता विचारकर नित्य पदार्थके मार्गमें नहीं चलता, इस शोचनीय बातका बारम्बार विचार करना योग्य है। मनको धीरज देकर उदासी छोड़े बिना काम नहीं चलेगा। दिलगीरी न करते हुए धीरजसे उस दुःखको सहन करना, यही अपना धर्म है। इस देहको भी कभी न कभी इसी तरह त्याग देना है, यह बात स्मरणमें आया करती है, और संसारके प्रति विशेष वैराग्य रहा करता है । पूर्वकर्मके अनुसार जो कुछ भी सुख-दुःख प्राप्त हो उसे समानभावसे वेदन करना, यह ज्ञानीकी शिक्षा याद आ जाती है, सो लिखी है । मायाकी रचना गहन है । २८४ बम्बई, फाल्गुन सुदी१३ शुक्र. १९४८ परिणाममें अत्यंत उदासीनता रहा करती है। ज्यों ज्यों ऐसा होता है त्यों त्यों प्रवृत्तिप्रसंग भी बढ़ा करता है । जिस प्रवृत्तिका प्रसंग होगा, ऐसी कल्पना भी न की थी, वह प्रसंग भी प्राप्त हो जाया करता है और इस कारण ऐसा मानते हैं कि पूर्वमें बाँधे हुए कर्म निवृत्त होनेके लिये शीघ्रतासे उदयमें आ रहे हैं। २८५ बम्बई, फा. सुदी १४ शुक्र. १९४८ किसीका दोष नहीं; हमने कर्म बाँध हैं इसलिये हमारा ही दोष है. ' ज्योतिषकी आम्नायसंबंधी जो थोड़ीसी बातें लिखीं, वे पढ़ी हैं । उसका बहुतसा भाग जानते हैं, तथापि उसमें चित्त जरा भी प्रवेश नहीं करता; और उस विषयका पढ़ना अथवा सुनना कदाचित् चमत्कारिक भी हो तो भी भाररूप ही मालूम होता है; उसमें जरासी भी रुचि नहीं रही है। हमें तो केवल एक अपूर्व सत्के ज्ञानमें ही रुचि रहती है; दूसरा जो कुछ भी करनेमें अथवा अनुकरण करनेमें आता है, वह सब आसपासके बंधनके कारण ही करते हैं। हालमें जो कुछ व्यवहार करते हैं, उसमें देह और मनको बाह्य उपयोगमें चलाना पड़ता है, इससे अत्यंत आकुलता आ आती है। जो कुछ पूर्वमें बंधन किया गया है, उन कमौके निवृत्त होनेके लिये-भोग लेनेके लिये
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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