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________________ २८९ पत्र २८६, २८७, २८८] विविध पत्र आदि संग्रह-२५वाँ वर्ष थोड़े ही कालमें भोग लेनेके लिये-इस व्यापार नामके व्यावहारिक कामका दूसरेके लिये सेवन कर रहे हैं। इस कामकी प्रवृत्ति करते समय जितनी हमारी उदासीन दशा थी, उससे भी आज विशेष है। कोई भी जीव परमार्थकी इच्छा करे, और व्यावहारिक संगमें प्रीति रक्खे, और परमार्थ प्राप्त हो जाय, ऐसा तो कभी हो ही नहीं सकता। पूर्वकर्म देखते हुए तो इस कामकी निवृत्ति हालमें ही हो जाय, ऐसा दिखाई नहीं देता। इस कामके पीछे 'त्याग' ऐसा हमने ज्ञानमें देखा था; और हालमें भी ऐसा ही स्वरूप दिखाई देता है, इतनी आश्चर्यकी बात है । हमारी वृत्तिको परमार्थके कारण अवकाश नहीं है, ऐसा होनेपर भी बहुत कुछ समय इस काममें बिताते हैं। २८६ बम्बई, फाल्गुन सुदी १५ रवि. १९४८ जिस ज्ञानसे भवका अन्त होता है, उस ज्ञानका प्राप्त होना जीवको बहुत दुर्लभ है; तथापि वह ज्ञान, स्वरूपसे तो अत्यन्त ही सुगम है, ऐसा हम मानते हैं । उस ज्ञानके सुगमतासे प्राप्त होनेमें जिस दशाकी आवश्यकता है, वह दशा प्राप्त होनी भी बहुत बहुत कठिन है, और इसके प्राप्त होनेके जो कारण हैं उनके मिले बिना जीवको अनंतकालसे भटकना पड़ा है । इन दो कारणोंके मिलनेपर मोक्ष होता है। २८७ बम्बई, फाल्गुन वदी ४ गुरु. १९४८ चित्तमें अविक्षेपरूपसे रहना-समाधि रखना । उस बातको चित्तमें निवृत्ति करनेके लिये आपको लिखी है, और इसमें उस जीवकी अनुकंपाके सिवाय और कोई दूसरा प्रयोजन नहीं है । हमें तो चाहे जो कुछ भी हो, तो भी समाधि ही रखनेकी दृढ़ता रहती है । अपने ऊपर यदि कोई आपत्ति, विडम्बना, घबराहट अथवा ऐसा ही कुछ आ पड़े, तो उसके लिये किसीपर दोषका आरोपण करनेकी हमारी इच्छा नहीं होती । तथा उसे परमार्थ-दृष्टिसे देखनेसे तो वह जीयका ही दोष है; व्यावहारिकदृष्टि से देखनेपर नहीं देखने जैसा है, और जहाँतक जीवकी व्यावहारिक-दृष्टि होती है वहाँतक पारमार्थिक दोषका ख्याल आना बहुत दुष्कर है। मोक्षके दो मुख्य कारण जैसे आपने लिखे हैं वे वैसे ही हैं । विशेष फिर लिखूगा । २८८ बम्बई, फाल्गुन वदी ६ शनि. १९४८ यहाँ भाव-समाधि तो है; द्रव्य-समाधि लानेके लिये पूर्वकर्मको निवृत्त होने देना योग्य है। दुःषमकालका बड़ेसे बड़ा चिह क्या है ! अथवा दुःषमकाल किसे कहते हैं ! अथवा उसे कौनसे मुख्य लक्षणसे पहिचान सकते हैं ! यही विज्ञप्ति । बोधबीज.
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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