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________________ पत्र २८२] विविध पत्र आदि संग्रह-२५वाँ वर्ष २८७ विचार हैं वे अखंडरूपसे नहीं हो सकते, अथवा गौणतासे हुआ करते हैं, ऐसा होनेके कारण बहुत कालतक प्रपंचमें रहना पड़ता है; और उसमें तो अत्यन्त उदास परिणाम हो जानेके कारण क्षणभरके लिये भी चित्त नहीं टिक सकता; इस कारण ज्ञानी सर्वसंग-परित्याग करके अप्रतिबद्धरूपसे विचरते हैं। सर्वसंग शब्दका लक्ष्यार्थ यह है कि ऐसा संग जो अखंडरूपसे आत्मध्यान अथवा बोधको मुख्यतासे न रख सके । यह हमने संक्षेपमें ही लिखा है; और इसी क्रमको बाह्यसे और अंतरसे भजा करते हैं । देह होनेपर भी मनुष्य पूर्ण वीतराग हो सकता है, ऐसा हमारा निश्चल अनुभव है; क्योंकि हम भी निश्चयसे उसी स्थितिको पानेवाले हैं, ऐसा हमारी आत्मा अखंडरूपसे कहती है; और ऐसा ही हैअवश्य ऐसा ही है । पूर्ण वीतरागकी चरण-रज मस्तकपर हो, ऐसा रहा करता है। अत्यन्त कठिन वीतरागता अत्यंत आश्चर्यकारक है; तथापि वह स्थिति प्राप्त हो सकती है, इसी देहमें प्राप्त हो सकती है, यह निश्चय है। उसे प्राप्त करनेके लिये हम पूर्ण योग्य हैं, ऐसा निश्चय है; इसी देहमें ऐसा हुए बिना हमारी उदासीनता मिट जायगी, ऐसा मालूम नहीं होता, और ऐसा होना संभव है-अवश्य ऐसा ही है। प्रायः करके प्रश्नोंका उत्तर लिखना न बन सकेगा, क्योंकि चित्त-स्थिति जैसी कही है वैसी ही रहा करती है। हालमें वहाँ कुछ बाँचना, विचारना चालू है या नहीं, यह प्रसंग पाकर लिखना। त्यागकी इच्छा करते हैं, परन्तु होता नहीं; वह त्याग कदाचित् तुम्हारी इच्छाके अनुसार ही करें, तथापि उतना भी हालमें तो बनना संभव नहीं है। अभिन्न बोधमयका प्रणाम पहुँचे. २८२ बम्बई, फाल्गुन सुदी ११ बुध. १९४८ उदास परिणाम आत्माको भजा करता है। निरुपायताका उपाय काल है। समझनेके लिये जो विगत लिखी है, वह ठीक है। ये बातें जबतक जीवके समझनेमें नहीं आती, तबतक यथार्थ उदासीन परिणति भी होना कठिन लगती है। "सत्पुरुष पहिचाननेमें नहीं आते' इत्यादि प्रश्नोंको उत्तर सहित लिख भेजनेका विचार तो होता है, परन्तु लिखनेमें जैसा चाहिये वैसा चित्त नहीं रहता, और वह भी अल्पकालके लिये ही रहता है, इसलिये मनकी बात लिखने में नहीं आ पाती। आत्माको उदास परिणाम अत्यन्त भजा करता है। एक-आधी जिज्ञासा-वृत्तिवाले पुरुषको करीब आठ दिन पहिले एक पत्र भेजनेके लिये लिखा था। बादमें अमुक कारणसे चित्तके रुक जानेपर वह पत्र ज्यों का त्यों छोड़ दिया, जो कि आपको पढ़ने के लिये भेजा है। जो वास्तविक ज्ञानीको पहिचानते हैं, वे ध्यान आदिकी इच्छा नहीं करते, ऐसा हमारा अंतरंग अभिप्राय रहा करता है । जो ज्ञानीकी ही इच्छा करता है, उसे ही पहिचानता है और भजता है, वह वैसा ही हो जाता है, और उसे ही उत्तम मुमुक्षु जानना चाहिये। .
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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