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________________ पत्र १८५, १८६] विविध पत्र आदि संग्रह-२४वाँ वर्ष २३९ जगत् तेरा ही स्तवन करता है तो फिर हम भी तेरे ही सामने बैठे रहेंगे, फिर तुझे स्तवनकी कहाँ चाहना है, और उसमें तेरा अपमान भी कहाँ हुआ ? (२)ज्ञानी पुरुष त्रिकालकी बात जाननेपर भी उसे प्रगट नहीं करते, ऐसा जो आपने पूँछा है, इसके संबंधमें ऐसा मालूम होता है कि ईश्वरीय इच्छा ही ऐसी है कि किसी भी पारमार्थिक बातके सिवाय ज्ञानी लोग त्रिकालसंबंधी दूसरी बात प्रसिद्ध न करें; तथा ज्ञानीकी आंतरिक इच्छा भी ऐसी ही मालूम होती है । जिसको किसी भी प्रकारकी आकांक्षा नहीं है, ऐसे ज्ञानी पुरुषको कुछ कर्तव्य नहीं रहा, इसलिये जो कुछ भी उदयमें आता है उतना ही वे करते हैं । हमें तो कहीं वैसा ज्ञान है नहीं, जिससे तीनों काल सब प्रकारसे जाने जा सकें; और हमें ऐसे ज्ञानका कोई विशेष लक्ष भी नहीं है । हमें तो ऐसा जो वास्तविक स्वरूप है उसीकी भक्ति और असंगता प्रिय है, यही निवेदन है। १८५ बम्बई, फाल्गुन सुदी ५ रवि. १९४७ अभेद दशाके आये बिना जो प्राणी इस जगत्की रचना देखना चाहते हैं, वे इसमें फँस जाते हैं। ऐसी दशा प्राप्त करनेके लिये उस प्राणीको इस रचनाके कारणमें प्रीति करनी चाहिये। और अपनी अहंरूप भ्रांतिका परित्याग करना चाहिये । सब प्रकारसे इस रचनाके उपभोगकी इच्छा त्यागनी ही योग्य है; और ऐसा होनेके लिये सत्पुरुषके शरण जैसी एक भी औषधि नहीं । इस निश्चय वार्ताको बिचारे मोहांध प्राणी नहीं जानते, इस कारण तीनों तापसे उन्हें जलते देखकर परमकरुणा आती है, और बरबस यह उद्गार मुँहसे निकल पड़ता है कि हे नाथ ! तू अनुग्रह करके इन्हें अपनी गतिमें भक्ति प्रदान कर । उदयकालके अनुसार चलते हैं । यदि कदाचित् मनोयोगके कारण इच्छा उत्पन्न हो जाय तो यह दूसरी बात है, परन्तु हमें तो ऐसा मालूम होता है कि इस जगत्के प्रति हमारा परम उदासीन भाव रहता है। यदि यह सब सोनेका भी हो जाय तो भी हम तो इसे तृणवत् ही मानते हैं, और परमात्माकी विभूतिमें ही हमारी भक्ति केन्द्रित है। आज्ञांकित. बम्बई, फाल्गुन सुदी ८ १९४७ ये प्रश्न ऐसे पारमार्थिक हैं कि मुमुक्षु पुरुषको उनका परिचय करना चाहिये । हज़ारों पुस्तकोंके पाठीको भी ऐसे प्रश्न नहीं उठते, ऐसा हम समझते हैं। उनमें भी प्रथम नंबरके प्रश्न (जगत्के स्वरूपमें मतमतांतर क्यों है ! ) को तो ज्ञानी पुरुष अथवा उसकी आज्ञाका अनुसरण करनेवाले पुरुष ही उदित कर सकते हैं । यहाँ संतोषजनक निवृत्ति नहीं रहती, इसलिये ऐसी ज्ञानवार्ता लिखनेमें जरा विलम्ब करनेकी जरूरत होती है । अन्तिम प्रश्न आपने हमारे वनवासके विषयमें पूँछा है। यह प्रश्न भी ऐसा है जो ज्ञानीकी अंतर्वृत्ति जाननेवाले पुरुषके सिवाय शायद ही किसी दूसरेके द्वारा जा सके।
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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