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________________ २४० श्रीमद् राजचन्द्र [ पत्र १८७ आपकी सर्वोत्तम प्रज्ञाको हम नमस्कार करते हैं । कलिकालमें यदि परमात्माको किसी भक्तिमान पुरुषके ऊपर प्रसन्न होना हो तो उनमेंसे आप भी एक हैं । हमें इस कालमें आपका सहारा मिला, और उसीसे हम जीवित हैं। १८७ बम्बई, फाल्गुन सुदी ११, १९४७ 'सत्' सत् है, सरल है, सुगम है; उसकी प्राप्ति सर्वत्र होती है । 'सत्' है, उसे कालसे बाधा नहीं, वह सबका अधिष्ठान है, और वह वाणीसे अकथ्य है; उसकी प्राप्ति होती है और उसकी प्राप्तिका उपाय है। सभी सम्प्रदायों एवं दर्शनोंके महात्माओंका लक्ष एक 'सत्' ही है । वाणीद्वारा अकथ्य होनेके कारण उसे मूक-श्रेणीसे समझाया गया है। जिससे उनके कथनमें कुछ भेद मालूम होता है, किन्तु वस्तुतः उसमें कोई भेद नहीं है। सब कालमें लोकका स्वरूप एकसा नहीं रहता; वह क्षणक्षणमें बदलता रहता है; उसके अनेक नये नये रूप होते हैं; अनेक स्थितियाँ पैदा होती हैं; और अनेक लय होती जाती हैं; एक क्षणके पहिले जो रूप बाह्यज्ञानसे मालूम न होता था वह सामने दिखाई देने लगता है, तथा क्षणभरमें बहुत दीर्घ विस्तारवाले रूप लय हो जाते हैं। महात्माके ज्ञानमें झलकनेवाला लोकका स्वरूप अज्ञानीपर अनुग्रह करनेके लिये कुछ जुदे रूपसे कहा जाता है। परन्तु जिसकी सर्व कालमें एकसी स्थिति नहीं, ऐसा यह रूप 'सत्' नहीं है, इस कारण उसे चाहे जिस रूपसे वर्णन करके उस समय भ्रांति दूर की गई है; और इसके कारण यह नियम नहीं है कि सर्वत्र यही स्वरूप होता है; ऐसा समझमें आता है । बाल-जीव तो उस स्वरूपको शाश्वतरूप मानकर भ्रांतिमें पड़ जाते हैं, परन्तु कोई सत्पात्र जीव ही ऐसे विविधतापूर्ण कथनसे तंग आकर 'सत्' की तरफ झुकता है । बहुत करके सब मुमुक्षुओंने इसी तरहसे मार्ग पाया है । इस जगत्के बारम्बार भ्रांतिरूप वर्णन करनेका बड़े पुरुषोंका एक यही उद्देश है कि उस स्वरूपको विचार करनेसे प्राणी भ्रांति पाते हैं कि और वस्तुका स्वरूप क्या है ! इस तरह जो अनेक प्रकारसे कहा गया है, उसमें क्या मायूँ ! और मुझे कल्याणकारक क्या है ? ' ऐसे विचार करते करते, इसको एक भ्रांतिका ही विषय मानकर, 'जहाँसे 'सत्' की प्राति होती है ऐसे संतकी शरण बिना छुटकारा नहीं, ऐसा समझकर वे उसकी खोज करते हैं, और उसकी शरणमें जाकर 'सत्' पाते हैं और स्वयं सत्रूप हो जाते हैं। जनक विदेही संसारमें रहनेपर भी विदेही रह सके, यह यद्यपि एक बड़ा आश्चर्य है, और यह महाकठिन है; तथापि परमज्ञानमें ही जिसकी आत्मा तन्मय हो गई है, ऐसी वह तन्मय आत्मा जिस तरहसे रहती है उसी तरह वह भी रहता है; चाहे जैसा कर्मका उदय क्यों न आ जाय फिर भी उसको तदनुसार रहनेमें बाधा नहीं पहुँचती। जिनको देहतकका भी अहंपना दूर हो गया है, ऐसे उस महाभाग्यकी देह भी मानों आत्मभावसे ही रहती थी, तो फिर उनकी दशा भेदवाली कैसे हो सकती है। श्रीकृष्ण महात्मा थे। वे ज्ञानी होनेपर भी उदयभावसे संसारमें रहे थे, इतना तो जैन ग्रंथोंसे
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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