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________________ २३८ भीमद् राजचन्द्र [पत्र १८४ १८४ बम्बई, फाल्गुन सुदी ४ शनि. १९४७ पुराणपुरुषको नमोनमः यह लोक त्रिविध तापसे आकुल व्याकुल है, और ऐसा दीन है कि मृगतृष्णाके जलको लेनेके लिये दौड़ दौड़ करके उससे अपनी तृषा बुझानेकी इच्छा करता है । वह अज्ञानके कारण अपने स्वरूपको भूल बैठा है, और इसके कारण उसे भयंकर परिभ्रमण प्राप्त हुआ है। समय समयपर वह अतुल खेद, ज्वर आदि रोग, मरण आदि भय, और वियोग आदि दुःखोंका अनुभव करता रहता है । ऐसी अशररणतावाले इस जगत्को एक सत्पुरुष ही शरण है; सत्पुरुषकी वाणीके बिना दूसरा कोई भी इस ताप और तृषाको शान्त नहीं कर सकता, ऐसा निश्चय है; अतएव फिर फिरसे हम उस सत्पुरुषके चरणोंका ध्यान करते हैं। संसार सर्वथा असातामय है। यदि किसी प्राणीको जो अल्प भी साता दीख पड़ती है तो वह भी सत्पुरुषका ही अनुग्रह है। किसी भी प्रकारके पुण्यके बिना साताकी प्राप्ति नहीं होती; और उस पुण्यको भी सत्पुरुषके उपदेशके बिना कोई नहीं जान पाया । बहुत काल पूर्व उपदेश किया हुआ वह पुण्य आज अमुक थोडीसी रूदियोंमें मान लिया गया है। इस कारण ऐसा मालूम होता है कि मानों वह ग्रंथ आदि द्वारा प्राप्त हुआ है, परन्तु वस्तुतः इसका मूल एक सत्पुरुष ही है; अतएव हम तो यही जानते हैं कि साताके एक अंशसे लेकर संपूर्ण आनन्दतककी सब समाधियोंका मूल एक सत्पुरुष ही है । इतनी अधिक सामर्थ्य होनेपर भी जिसको कोई भी स्पृहा नहीं, उन्मत्तता नहीं, अपनापन नहीं, गर्व नहीं, गौरव नहीं, ऐसे आश्चर्यकी प्रतिमारूप सत्पुरुषके नामको हम फिर फिरसे स्मरण करते हैं । त्रिलोकके नाथ वशमें होनेपर भी वे किसी ऐसी ही अटपटी दशासे रहते हैं कि जिसकी सामान्य मनुष्यको पहिचान भी होना दुर्लभ है; ऐसे सत्पुरुषका हम फिर फिरसे स्तवन करते हैं। एक समयके लिये भी सर्वथा असंगपनेसे रहना, यह त्रिलोकको वश करनेकी अपेक्षा कहीं अधिक कठिन कार्य है; जो त्रिकालमें ऐसे असंगपनेसे रहता है, ऐसे सत्पुरुषके अंतःकरणको देखकर हम उसे परम आश्चर्यसे नमन करते हैं। हे परमात्मन् ! हम तो ऐसा ही मानते हैं कि इस कालमें भी जीवको मोक्ष हो सकता है; फिर भी जैसा कि जैन ग्रंथोंमें कहीं कहीं प्रतिपादन किया गया है कि इस कालमें मोक्ष नहीं होता, तो इस प्रतिपादनको इस क्षेत्रमें तू अपने पास ही रख, और हमें मोक्ष देनेकी अपेक्षा, हम सत्पुरुषके ही चरणका ध्यान करें, और उसीके समीपमें रहें, ऐसा योग प्रदान कर । हे पुरुषपुराण! हम तुझमें और सत्पुरुषमें कोई भी भेद नहीं समझते; तेरी अपेक्षा हमें तो सत्पुरुष ही विशेष मालूम होता है; क्योंकि तू भी उसीके आधीन रहता है, और हम सत्पुरुषको पहिचाने बिना तुझे नहीं पहिचान सके; तेरी यही दुर्घटता हमें सत्पुरुषके प्रति प्रेम उत्पन्न करती है। क्योंकि तुझे वश करनेपर भी वे उन्मत्त नहीं होते; और वे तुझसे भी अधिक सरल हैं, इसलिये अब तू जैसा कहे वैसा करें। हे नाथ! तू बुरा न मानना कि हम तुझसे भी सत्पुरुषका ही अधिक स्तवन करते हैं। समस्त
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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