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________________ पत्र १८३] विविध पत्र आदि संग्रह-२४वाँ वर्ष २३७ बम्बई, माघ वदी १९४७ सतको नमोनमः 'काम' शब्द वांछा अर्थात् इच्छा, और पंचेन्द्रियोंके विषयोंके अर्थमें प्रयुक्त होता है । 'अनन्य' अर्थात् जिसके समान कोई दूसरा न हो अर्थात् सर्वोत्कृष्ट । ' अनन्यभक्तिभाव' अर्थात् जिसके समान कोई दूसरा नहीं ऐसा भक्तिपूर्वक उत्कृष्टभाव । जिसके वचन-बलसे जीव निर्वाण-मार्गको पाता है, ऐसी सजीवन मूर्तिका योग यद्यपि जीवको पूर्वकालमें अनेक बार हो चुका है, परन्तु उसकी पहिचान नहीं हुई । जीवने पहिचान करनेका प्रयत्न शायद किया भी होगा, तथापि जीवको दृढ़ पकड़े रखनेवाली सिद्धि-योग आदि, ऋद्धि-योग आदि एवं इसी तरहकी दूसरी कामनाओंसे उसकी खुदकी दृष्टि मलिन थी; और यदि दृष्टि मलिन हो तो उससे सत्रमूर्तिके प्रति लक्ष न लगकर वह लक्ष अन्य वस्तुओंमें ही रहता है, जिससे पहिचान नहीं हो पाती; और जब पहिचान होती है तब जीवको कोई अपूर्व ही स्नेह पैदा हो जाता है, और वह ऐसा कि उस मूर्तिके वियोगमें उसे एक घड़ीभर आयु भोगना भी विडम्बना मालूम होती है, अर्थात उसके वियोगमें वह उदासीन भावसे उसीमें वृत्ति रखकर जीता है; और इसे दूसरे पदार्थोका संयोग और मृत्यु ये दोनों समान ही हो जाते हैं । जब ऐसी दशा आ जाती है, तब जीव मार्गके बहुत ही निकट आ जाता है, ऐसा समझना चाहिये । ऐसी दशा आनेमें मायाकी संगति बहुत ही विघ्नरूप है; परंतु इसी दशाको लानेका जिसका दृढ़ निश्चय है उसे प्रायः करके थोड़े ही समयमें वह दशा प्राप्त हो जाती है। ____ तुम सब लोग हालमें तो हमें एक प्रकारका बंधन करने लगे हो, उसके लिये हम क्या करें; यह कुछ भी नहीं सूझता । ' सजीवन मूर्ति 'से मार्ग मिल सकता है, ऐसा उपदेश करते हुए हमने स्वयं अपने आपको ही बंधनमें डाल लिया है, और इस उपदेशका अर्थ तुमने हमारे ऊपर ही लगाना शुरू कर दिया । हम तो सजीवन मूर्तिके केवल दास हैं, उनकी मात्र चरण-रज हैं। हमारी ऐसी अलौकिक दशा भी कहाँ है कि जिस दशामें केवल असंगता ही रहती हो ? हमारा उपाधियोग तो जैसा तुम प्रत्यक्ष देखते वैसा ही है। ये दो अन्तकी बातें मैंने तुम सबोंके लिये लिखीं हैं। जिससे हमको अब कम बंधन हो, ऐसा करनेकी सबसे प्रार्थना है। दूसरी बात एक यह भी कहनी है कि तुम लोग हमारे विषयमें अब किसीसे कुछ भी न कहना । उदयकाल तुम जानते ही हो । मुमुक्षु वै० योगमार्गके अच्छे परिचयी हैं, इतना ही जानता हूँ; योग्य जीव हैं । जिस 'पद'के साक्षात्कारके विषयमें तुमने पूँछा है वह उन्हें अभीतक साक्षात्कार नहीं हुआ है। . कुछ दिन पहिले उत्तर दिशामें विचरनेकी बात उनके मुखसे सुनी थी, किन्तु इस विषयमें इस समय कुछ भी नहीं लिखा जा सकता । यद्यपि मैं तुम्हें इतना विश्वास दिला सकता हूँ कि उन्होंने तुम्हें मिथ्या नहीं कहा है।
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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