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________________ २२६ - श्रीमद् राजचन्द्र [पत्र १६२, १६३, १६४ निरन्तर सेवन किया करते हैं; और इनके इस दासत्वके प्रति हमारा दासत्व होनेका भी यही कारण है । भोजा भगत, निरांत कोली इत्यादि पुरुष योगी ( परम योग्यतावाले ) थे । निरंजनपदको समझनेवाले निरंजन कैसी स्थितिमें रखते हैं, यह विचारनेपर उनकी अतीन्द्रिय गतिपर गंभीर समाधिपूर्ण हँसी आती है । अब हम अपनी दशा किसी भी प्रकारसे नहीं कह सकते; फिर लिख तो कहाँसे सकेंगे ! आपका दर्शन होनेपर ही जो कुछ वाणी कह सकेगी वह कहेगी, बाकी तो लाचारी है। हमें कुछ मुक्ति तो चाहिये नहीं, और जिस पुरुषको जैनदर्शनका केवलज्ञान भी नहीं चाहिये, उस पुरुषको परमेश्वर अब कौनसा पद देगा, क्या यह कुछ आपके विचारमें आता है ! यदि आता हो तो आश्चर्य करना; अन्यथा यहाँसे किसी रीतिसे कुछ भी बाहर निकाला जा सके ऐसी संभावमा दिखाई नहीं देती। ____ आप बारम्बार लिखते हैं कि दर्शनके लिये बहुत आतुरता है, परन्तु महावीरदेवने इसे पंचमकाल कहा है, और व्यासभगवान्ने कलियुग कहा हैवह कहाँसे साथ रहने दे सकता है ? और यदि रहने दे तो आपको उपाधिमुक्त क्यों न रक्खे ! १६२ बम्बई, मंगसिर वदी १४, १९४७ यह भूमि ( बम्बई ) उपाधिका शोभा-स्थान है । ........आदिको यदि एकबार भी आपका सत्संग हो जाय तो जहाँ एक लक्ष करना चाहिये वहाँ लक्ष हो सकता है, अन्यथा होना दुर्लभ है, क्योंकि हालमें हमारी बाह्यवृत्ति बहुत कम है । १६३ बम्बई, पौष सुदी ५ गुरु. १९४७ अलख नाम धुनी लगी गगनमें, मगन भया मन मेराजी। आसन मारी सुरत दृढ़धारी, दिया अगम-घर डेराजी। दरश्या अलख देदाराजी। १६४ बम्बई, पौष सुदी १० सोम. १९४७ प्रश्नव्याकरणमें सत्यका माहात्म्य पढ़ा है, उसपर मनन भी किया था। हालमें हरिजनकी संगतिके अभावसे काल कठिनतासे व्यतीत होता है । हरिजनकी संगतिमें भी उसके प्रति भक्ति करना यह बहुत प्रिय लगता है। ... आपकी परमार्थविषयक जो परम आकांक्षा है, वह ईश्वरेच्छा हुई तो किसी अपूर्व मार्गसे सफल हो जायगी । जिनको भ्रांतिके कारण परमार्थका लक्ष मिलना दुर्लभ हो गया है, ऐसे भारतक्षेत्रवासी मनुष्यों के प्रति वह परम कृपालु परमकृपा करेगा; परन्तु अभी हालमें कुछ समयतक उसकी इच्छा हो, ऐसा मालूम नहीं होता।
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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