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________________ पत्र १६५, १६६, १६७] विविध पत्र आदि संग्रह-२४वाँ वर्ष २२७ १६५ बम्बई पौष सुदी १४ शुक्र. १९४७ करना फकीरी क्या दिलगीरी; सदा मगन मन रहनाजी मुमुक्षुओंको इस वृत्तिको अधिकाधिक बढ़ाना उचित है। परमार्थकी चिंताका होना यह एक जुदा विषय है । अंतरंगमेंसे व्यवहारकी चिंताका वेदन कम करना यह मार्ग पानेका एक साधन है। हमारी वृत्ति जो करना चाहती है, वह एक निष्कारण परमार्थ ही है और इस विषयमें आप भी बारम्बार जान ही चुके हैं; तथापि कुछ समवाय कारणकी न्यूनताके कारण अभी हालमें तो वैसा कुछ अधिक नहीं किया जा सकता; इसलिये अनुरोध है कि ऐसा कथन प्रगट न करना कि हालमें हम कोई परमार्थ-ज्ञानी हैं, अथवा समर्थ हैं, क्योंकि यह हमें वर्तमानमें प्रतिकूल जैसा है।। तुममें से जो कोई मार्गको समझे हैं, वे उसे साध्य करनेके लिये निरन्तर सत्पुरुषके चरित्रका मनन करना चालू रक्खें; उस विषयमें प्रसंग आनेपर हमसे पूँछे, तथा सत्शास्त्रका, सत्कथाका और सद्वतका सेवन करें। वि. निमित्तमात्र बम्बई, पौष वदी २ सोम. १९४७ हमको प्रत्येक मुमुक्षुओंका दासत्व प्रिय है। इस कारण उन्होंने जो कुछ भी उपदेश किया है, उसे हमने पढ़ा है । यथायोग्य अवसर प्राप्त होनेपर इस विषयमें उत्तर लिखा जा सकेगा; तथा अभी हम जिस आश्रम (जिस स्थितिमें रहना है वह स्थिति ) में हैं उसे छोड़ देनेकी कोई आवश्यकता नहीं । तुमने हमारे समागमकी जो आवश्यकता बताई वह अवश्य हितैषी है; तथापि अभी इस दशाको पानेका योग नहीं आ सकता। यहाँ तो निरन्तर ही आनन्द है । वहाँ सबको धर्मयोगकी वृद्धि करनेके लिये विनति है। १६७ बम्बई, पौष १९४७ " जीवको मार्ग महीं मिला, इसका क्या कारण है "! इस बातपर बारम्बार विचार करके यदि योग्य लगे तो साथका (नीचेका) पत्र पढ़ना । हमें तो मालूम होता है कि मार्ग सरल है, सुलभ है, परन्तु प्राप्तिका योग मिलना ही दुर्लभ है। . . सत्स्वरूपको अभेदभावसे और अनन्य भक्तिसे नमोनमः ___ जो निरन्तर अप्रतिबद्धभावसे विचरते हैं, ऐसे ज्ञानी पुरुषोंकी आज्ञाकी सम्यक् प्रतीतिके हुये बिना, तथा उसमें अचल स्नेह. हुए बिना सत्स्वरूपके विचारकी यथार्थ प्राप्ति नहीं होती, और वैसी दशा आनेसे जिसने उनके चरणारविन्दका सेवन किया है, वह पुरुष वैसी दशाको क्रम क्रमसे पा जाता है । इस मार्गका आराधन किये बिना जीवने अनादिकालसे परिभ्रमण किया है। जहाँतक जीवको स्वच्छंदरूपी अंधापन मौजूद है, वहाँतक इस मार्गका दर्शन नहीं होता । यह अंधापन हटानेके लिये जीवको इस मार्गका विचार करना चाहिये; हड़ मोक्षेच्छा करनी चाहिये; और इस विचारमें
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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