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________________ पत्र १६०, १६१] विविध पत्र मादि संग्रह-२४वाँ वर्ष ३२५ १६० बम्बई, मंगसिर सुदी १४, १९४७ आनन्दमूर्ति सत्स्वरूपको अभेदभावसे तीनों काल नमस्कार करता हूँ जो जो इच्छायें उसमें कहीं हैं, वे कल्याणकारक ही हैं; परन्तु इस इच्छाकी सब प्रकारकी स्फुरणाएँ तो सच्चे पुरुषके चरणकमलकी सेवामें ही अन्तर्भूत हैं (यह सब अनन्तज्ञानियोंका माना हुआ निःशंक वाक्य आपको लिखा है); और वह बहुधा सत्संगमें ही अन्तर्भूत है। परिभ्रमण करते हुए जीवने अनादिकालसे अबतक अपूर्वको नहीं पाया; जो पाया है वह सब पूर्वानुपूर्व ही है। इन सबकी वासनाका त्याग करनेका अभ्यास करना । दृढ़ प्रेमसे और परम उल्लाससे यह अभ्यास जयवंत होगा, और वह कालकी अनुकूलता मिलनेपर महापुरुषके योगसे अपूर्वकी प्राप्ति करायेगा। - सब प्रकारकी क्रियाका, योगका, तपका, और इसके सिवाय अन्य प्रकारका ऐसा लक्ष रखना कि आत्माको छुड़ानेके लिये ही सब कुछ है; बंधनके लिये नहीं; जिससे बंधन हो उन सबका ( सामान्य क्रियासे लेकर सब योग आदि पर्यंत ) त्यागना ही योग्य है । मिथ्या नामधारीका यथायोग्य, १६१ बम्बई, मंगसिर वदी १४, १९४७ प्राप्त हुए सत्स्वरूपको अभेदभावसे अपूर्व समाधिमें स्मरण करता हूँ अन्तिम स्वरूपके समझने में और अनुभव करनेमें थोड़ीसी भी कमी नहीं रही है। वह जैसे है वैसे ही सब प्रकारसे समझमें आ गया है। सब प्रकारोंका केवल एकदेश छोड़कर शेष सब कुछ अनुभवमें आ चुका है । एकदेश भी ऐसा नहीं रहा जो समझमें न आया हो; परन्तु योग ( मन, वचन, काय) पूर्वक संगहीन होनेके लिये वनवासकी आवश्यकता है; और ऐसा होनेपर ही वह एकदेश भी अनुभवमें आ जायगा, अर्थात् उसीमें रहा जायगा; परिपूर्ण लोकालोक-ज्ञान उत्पन्न होगा; किन्तु इसे उत्पन्न करनेकी (वैसी) आकांक्षा नहीं रही है, तो फिर वह उत्पन्न भी कैसे होगा? यह भी आश्चर्यकारक है! परिपूर्ण स्वरूपज्ञान तो उत्पन्न हो चुका ही है, और इस समाधिमेंसे निकलकर लोकालोक-दर्शनके प्रति जाना कैसे होगा! यह भी केवल एक मुझे ही नहीं, परन्तु पत्र लिखनेवालेको भी एक शंका होती है। ___ कुनबी और कोली जैसी जातिमें भी थोड़े ही वर्षों में मार्गको पाये हुए कई एक पुरुष हो गये हैं। जन-समुदायको उन महात्माओंकी पहिचान न होनेके कारण उनसे कोई विरले लोग ही स्वार्थकी सिद्धि कर सके हैं; जीवको उन महात्माओंके प्रति मोह ही उत्पन्न न हुआ, यह कैसा अद्भुत ईश्वरीय विधान है! इन सबने कोई अंतिम ज्ञानको पाया न था, परन्तु उसका मिलना उनके बहुत ही समीपमें था। ऐसे बहुतसे पुरुषोंके पद वगैरे यहाँ देखे हैं । ऐसे पुरुषोंके प्रति बहुत रोमांच उल्लसित होता है। और मानों निरंतर उनकी चरणोंकी ही सेवा करते रहें, यही एक आकाक्षा रहा करती है । शानियोंकी अपेक्षा ऐसे मुमुक्षुको देखकर अतिशय उल्लास होता है, उसका कारण यही है कि वे ज्ञानीके चरणोंका
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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