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________________ २२४ श्रीमद् राजचन्द्र [पत्र १५८, १५९ हुआ कि किसीका मिथ्यात्व तो नाश होगा या नहीं ! उत्तर मिला कि हाँ, होता है । तो फिर शंकाकारने पूछा कि यदि मिथ्यात्व नष्ट हो सकता है तो मिथ्यात्वसे मोक्ष हुआ कहा जायगा या नहीं ! फिर सामनेवालेने जवाब दिया कि हाँ, ऐसा तो हो सकता है। अन्तमें शंकाकार बोला कि ऐसा नहीं, परन्तु ऐसा होगा कि ' इस कालमें, कोई भी इस कालमें उत्पन्न हुआ सब कर्मोंसे सर्वथा मुक्त नहीं होता।' __ इसमें भी अनेक भेद हैं। परन्तु यहाँतक कदाचित् साधारण स्याद्वाद मानें तो यह जैनशास्त्रके लिये स्पष्टीकरण हुआ जैसा गिना जायगा । वेदान्त आदि तो इस कालमें भी सब कर्मोसे सर्वथा मुक्तिका प्रतिपादन करते हैं, इसलिये अभी और भी आगे जाना पडेगा; उसके बाद कहीं जाकर वाक्यकी सिद्धि हो पावे । इस तरह वाक्य बोलनेकी अपेक्षा रखना उचित कहा जा सकता है; परन्तु ज्ञानके उत्पन्न हुए बिना इस अपेक्षाका स्मृत रहना संभव नहीं; अथवा हो सकता है तो वह सत्पुरुषकी कृपासे ही सिद्ध हो सकता है। इस समय बस यही। थोड़े लिखेको बहुत समझना। ऊपर लिखी हुई सिर घुमादेनेवाली बातें लिखना मुझे पसंद नहीं। शक्करके श्रीफलका सभीने वखान किया है; परन्तु यहाँ तो छालसहित अमृतका नारियल है, इसलिये यह कैसे पसंद आ सकता है, परन्तु साथ ही इसे नापसंद भी नहीं किया जा सकता। __अन्तमें आज, कल और हमेशके लिये यही कहना है कि इसका संग होनेके बाद सब प्रकारसे निर्भय रहना सीखना । आपको यह वाक्य कैसा लगता है ! १५८ बम्बई, मंगसिर सुदी ९ शनि. १९४७ ॐ सत्स्व रूप यहाँ तो तीनों ही काल समान हैं । चालू व्यवहारके प्रति विषमता नहीं है, और उसको त्यागनेकी इच्छा रक्खी है, परन्तु पूर्व प्रकृतियोंके हटाये बिना कोई छुटकारा नहीं। कालकी दुःषमता........से यह प्रवृत्ति मार्ग बहुतसे जीवोंको सत्का दर्शन करनेसे रोकता है। तुम सबसे यही अनुरोध है कि इस आत्माके संबंध दूसरोंसे कोई बातचीत मत करना। १५९ बम्बई, मंगसिर सुदी १३ बुध. १९४७ आप हृदयके जो जो उद्गार लिखते हैं, उन्हें पढ़कर आपकी योग्यताके लिये प्रसन्न होता हूँ, परम प्रसन्नता होती है, और फिर फिरसे सतयुगका स्मरण हो आता है। आप भी जानते ही हैं कि इस कालमें मनुष्योंके मन मायामय संपत्तिकी इच्छायुक्त हो गये हैं। किन्हीं विरले मनुष्योंका ही निर्वाण-मार्गकी दृढ़ इच्छायुक्त रहना संभव है। अथवा वह इच्छा किन्हीं विरलोको ही सत्पुरुषके चरणोंके सेवन करनेसे प्राप्त होती है । इसमें संदेह नहीं कि महा अंधकारवाले इस कालमें अपना जन्म किसी कारणसे तो हुआ ही है, परन्तु क्या उपाय किया जाय, इसको तो सम्पूर्णतासे जब वह सुशावेगा तभी कुछ उपाय बन सकेगा।
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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