SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 290
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २०४ .. श्रीमद् राजवन्द्र [पत्र १२१, १२२ कारण केवल एक विषम आत्मा ही है, और वह यदि सम है, तो सब सुख ही है। इस वृत्तिके कारण समाधि रहती है; तो भी बाहरसे गृहस्थपनेकी प्रवृत्ति नहीं हो सकती, देह-भाव दिखाना नहीं सहा जाता, आत्म-भावसे प्रवृत्ति नहीं हो सकती, और बाह्यभावसे प्रवृत्ति करनेमें बहुतसे अंतराय हैं, तो फिर अब क्या करें ? क्या पर्वतकी गुफामें चले जाय, और अदृश्य हो जॉय ? यही रटन रहा करती है; तो भी बाह्यरूपसे कुछ संसारी प्रवृत्ति करनी पड़ती है। उसके लिये शोक तो नहीं है, तो भी उसे सहन करनेके लिये जीव इच्छा नहीं करता । परमानन्द त्यागी इसकी इच्छा करे भी कैसे ! और इसी कारणसे ज्योतिष आदिकी ओर हालमें चित्त नहीं हैकिसी भी तरहके भविष्यज्ञान अथवा सिद्धियोंकी इच्छा नहीं है तथा उनके उपयोग करनेमें भी उदासीनता रहती है, उसमें भी हालमें तो और भी अधिक रहती है । इसलिये इस ज्ञानसंबंधी पूँछे हुए प्रश्नोंके विषयमें चित्तकी स्वस्थता होनेपर विचार करके फिर लिलूँगा, अथवा समागम होनेपर कहूँगा । . जो प्राणी इस प्रकारके प्रश्नोंके उत्तर पानेसे आनन्द मानते हैं, वे मोहके अधीन हैं, और उनका परमार्थका पात्र होना भी दुर्लभ है, ऐसी मान्यता है; इसलिये ऐसे प्रसंगमें आना भी अच्छा नहीं लगता, परन्तु परमार्थके कारण प्रवृत्ति करनी पड़ेगी, तो कुछ करूँगा; इच्छा तो नहीं होती। १२१ ववाणीआ, द्वितीय भाद्र. सुदी ८ रवि. १९४६ देहधारीको विडंबना हो यह तो एक धर्म है; फिर उसमें खेद करके आत्माका विस्मरण क्यों करना ! .. धर्म और भक्तिसे युक्त ऐसे तुमसे ऐसी याचना करनेका योग केवल पूर्वकर्मने ही दिया है। आत्मेच्छा तो इससे कंपित है । निरुपायताके सामने सहनशीलता ही सुखदायक है। इस क्षेत्रमें इस कालमें इस देहधारीका जन्म होना योग्य न था । यद्यपि सब क्षेत्रोंमें जन्म लेनेकी इच्छाको उसने रोक ही दी है, तथापि प्राप्त हुए जन्मके लिये शोक प्रदर्शन करनेके लिये ऐसा........लिखा है। किसी भी प्रकारसे विदेही-दशाके बिना, यथायोग्य जीवनमुक्त-दशाके बिना, यथायोग्य निग्रंथ-दशाके बिना एक क्षणभरका भी जीवन देखना जीवको रुचिकर नहीं लगता, तो फिर बाकी रही हुई शेष आयु कैसे बीतेगी ! यह आत्मेच्छाकी विडंबना है। ___ यथायोग्य दशाका अब भी मैं मुमुक्षु हूँ; कुछ तो प्राप्ति हो गई ह; तो भी सम्पूर्णता प्राप्त हुए बिना यह जीव शांतिको प्राप्त करे, ऐसी दशा मालूम नहीं होती । एकके ऊपर राग और दूसरेके ऊपर द्वेष, ऐसी स्थिति उसे एक रोममें भी प्रिय नहीं । अधिक क्या कहा जाय ! दूसरेका परमार्थ करनेके सिवाय देह भी तो अच्छी नहीं लगती ? आत्म-कल्याणमें प्रवृत्ति करना। १२२ ववाणीआ, द्वितीय भाद्र. सुदी १४ रवि. १९४६ मुमुक्षुताके अंशोसे ग्रहण किया हुआ तुम्हारा - हृदय परम संतोष देता है । अनादिकालका
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy