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________________ २०५ संवेग पत्र १२३, १२४, १२५] विविध पत्र आदि संग्रह-२३वाँ वर्ष परिभ्रमण अब समाप्त हो, बस यही अभिलाषा है, यह भी एक कल्याण ही है । जब कोई ऐसा योग्य समय आ पहुँचेगा, तब इष्ट वस्तुकी प्राप्ति हो जायगी। वृत्तियोंको निरन्तर लिखते रहना; जिज्ञासाको उत्तेजन देते रहना; तथा निम्नलिखित धर्म-कथाको तुमने श्रवण किया होगा तो भी फिर फिरसे उसका स्मरण करना। सम्यक्दशाके पाँच लक्षण हैं शम अनुकंपा आस्था । क्रोध आदि कषायोंका शान्त हो जाना, उदय आई हुई कषायोंमें मंदता होना, केन्द्रीभूत की जा सके ऐसी आत्म-दशाका हो जाना, अथवा अनादिकालकी वृत्तियोंका शान्त हो जाना ही शम है। मुक्त होनेके सिवाय दूसरी किसी भी प्रकारकी इच्छा और अभिलाषाका न होना ही संवेग है। जबसे ऐसा समझमें आया है कि केवल भ्रांतिसे ही परिभ्रमण किया, तबसे अब बहुत हुआ ! अरे जीव ! अब तो ठहर, ऐसा भाव होना यह निर्वेद है। परम माहात्म्यवाले निस्पृही पुरुषोंके वचनमें ही तल्लीन रहना यही श्रद्धा-आस्था है। इन सबके द्वारा यावन्मात्र जीवोंमें अपनी आत्माके समान बुद्धि होना यह अनुकंपा है। ये लक्षण अवश्य मनन करने योग्य हैं, स्मरण करने योग्य हैं, इच्छा करने योग्य हैं, और अनुभव करने योग्य हैं। १२३ ववाणीआ, द्वितीय भाद्रपद सुदी १४ रवि. १९४६ आपका संवेगपूर्ण पत्र मिला । पत्रोंसे अधिक क्या बताऊँ । जबतक आत्मा आत्म-भावसे अन्यथारूपसे अर्थात् देह-भावसे आचरण करेगी, ' मैं करता हूँ,' ऐसी बुद्धि करेगी, ' मैं ऋद्धि आदिमें अधिक है, ऐसे मानेगी, शास्त्रोंको जालरूप समझेगी, मर्मके लिये मिथ्यामोह करेंगी, उस समयतक उसको शांति मिलना दुर्लभ है । इस पत्रसे यही कहता हूँ। इसमें ही बहुत कुछ समाया हुआ है। बहुत जगह बाँचा हो, सुना हो तो भी इसपर अधिक लक्ष रखना। १२४ मोरवी, द्वितीय भाद्रपद वदी ४ गुरु. १९४६ पत्र मिला । शांतिप्रकाश नहीं मिला। आत्मशांतिमें प्रवृत्ति करना । योग्यता प्राप्त करना, इसी तरहसे वह मिलेगी। पात्रताकी प्राप्तिका अधिक प्रयास करो। .१२५ मोरवी, द्वितीय भाद्रपद वदी ७ रवि. १९४६ (१) आठ रुचक प्रदेशोंके विषयमें तुम्हारा प्रथम प्रश्न है।
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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