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________________ पत्र ११९, १२०] विविध पत्र आदि संग्रह-२३वाँ वर्ष २०३ प्रत्याख्यान आदि क्रियाओंसे ही मनुष्यत्व मिलता है; उच्च गोत्र और आर्यदेशमें जन्म मिलता है, और उसके बाद ज्ञानकी प्राप्ति होती है, इसलिये ऐसी क्रियाको भी ज्ञानकी साधनभूत समझनी चाहिये। ११९ ववाणीआ, प्र. भाद्र. वदी १३ शुक्र. १९४६ क्षणमपि सज्जनसंगतिरेका, भवति भवार्णवतरणे नौका सत्पुरुषोंका क्षणभरका भी समागम संसाररूपी समुद्रको पार करनेमें नौकारूप होता है—यह वाक्य महात्मा शंकसचार्यजीका है; और वह यथार्थ ही मालूम होता है । अंतःकरणमें निरंतर ऐसा ही आया करता है कि परमार्थरूप होना, और अनेकोंको परमार्थके साध्य करनेमें सहायक होना, यही कर्तव्य है; तो भी अभी ऐसे योगका समागम नहीं है। १२० ववाणीआ, द्वितीय भाद्र. सुदी २ भौम. १९४६ यहाँ जो उपाधि है, वह एक अमुक कामसे उत्पन्न हुई है; और उस उपाधिके लिये क्या होगा, ऐसी कोई कल्पना भी नहीं होती, अर्थात् उस उपाधिके संबंधमें कोई चिंता करनेकी वृत्ति नहीं है । यह उपाधि कलिकालके प्रसंगसे एक पहिलेकी संगतिसे उत्पन्न हुई है, और उसके लिये जैसा होना होगा, वह थोड़े कालमें हो रहेगा । ऐसी उपाधिका इस संसारमें आना, यह कोई आश्चर्यकी बात नहीं। ईश्वरपर विश्वास रखना यह एक सुखदायक मार्ग है । जिसका दृढ़ विश्वास होता है, वह दुःखी नहीं होता, अथवा दुःखी हो भी तो वह उस दुःखका अनुभव नहीं करता, उसे दुःख उलटा सुखरूप हो जाता है । आत्मेच्छा ऐसी ही रहती है कि संसारमें प्रारब्धके अनुसार चाहे किसी भी तरहका शुभ अशुभ कर्मका उदय हो, परन्तु उसमें प्रीति अप्रीति करनेका हमें संकल्पमात्र भी न करना चाहिये। रात दिन एक परमार्थ विषयका ही मनन रहा करता है । आहार भी यही है, निद्रा भी यही है, शयन भी यही है, स्वप्न भी यही है, भय भी यही है, भोग भी यही है, परिग्रह भी यही है, चलना भी यही है, और आसन भी यही हैअधिक क्या कहा जाय ! हाड, मांस और उसकी मज्जाको एक इसी रंगमें रंग दिया है । रोम रोम भी मानों इसीका विचार करता है, और उसके कारण न कुछ देखना अच्छा लगता है, न कुछ सूंघना अच्छा लगता है, न कुछ सुनना अच्छा लगता है, न कुछ चखना अच्छा लगता है, न कुछ छूना अच्छा लगता है, न कुछ बोलना अच्छा लगता है, न मौन रहना अच्छा लगता है, न बैठना अच्छा लगता है, न उठना अच्छा लगता है,न सोना अच्छा लगता है, न जागना अच्छा लगता है, न खाना अच्छा लगता है, न भूखे रहना अच्छा लगता है, न असंग अच्छा लगता है, न संग अच्छा लगता है, न लक्ष्मी अच्छी लगती है, और न अलक्ष्मी ही अच्छी लगती है; ऐसी दशा हो गई है तो भी उसके प्रति आशा या निराशा कुछ भी उदय होती हुई नहीं मालूम होती; वह हो तो भी ठीक, और न हो तो भी ठीक; यह कुछ दुःखका कारण नहीं है । दुःखकी
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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