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________________ १५८ श्रीमद् राजचन्द्र [पत्र ४५,४६,४७ कई एक ज्ञान-विचार लिखते समय उदासीनताकी वृद्धि हो जानेसे अभीष्टरूपमें रखनेमें नहीं आ पाते; और न उसे आप जैसोंको बताया ही जा सकता है । यह किसी का कारण । क्रमरहित किसी भी रूपमें नाना प्रकारके विचार यदि आपके पास रक्खू तो उन्हें योग्यतापूर्वक आत्मगत करते हुए दोषके लिये-भाविष्यके लिये भी क्षमाभाव ही रक्खें। इस समय लघुत्वभावसे एक प्रश्न करनेकी आज्ञा चाहता हूँ। आपके लक्षमें होगा कि प्रत्येक पदार्थकी प्रज्ञापनीयता चार प्रकारसे होती है:-द्रव्य (उसका वस्तुस्वभाव ) से, क्षेत्र ( उसकी औपचारिक अथवा अनौपचारिक व्यापकता) से, कालसे और भाव (उसके गुणादिक भाव) से । हम इनके बिना आत्माकी व्याख्या भी नहीं कर सकते । आप यदि अवकाश मिलनेपर इन प्रज्ञापनीयताओंसे इस आत्माकी व्याख्या लिखेंगे तो इससे मुझे बहुत संतोष होगा। इसमेंसे एक अद्भुत व्याख्या निकल सकती है। परन्तु आपके विचार पहिलेसे कुछ सहायक हो सकेंगे, ऐसा समझकर यह याचना की है। धर्मोपजीवन प्राप्त करनेमें आपकी सहायताकी प्रायः आवश्यकता पड़ेगी, परन्तु सामान्यतः वृत्तिभावसंबंधी आपके विचार जान लेनेके बाद ही उस बातको जन्म देना, ऐसी इच्छा है। शास्त्र, यह परोक्षमार्ग है; और.........प्रत्यक्षमार्ग है । इस समय तो इतना ही लिखकर यह पत्र विनय-भावपूर्वक समाप्त करता हूँ। वि. आ. रायचंद रवजीभाईका प्रणाम. यह भूमि श्रेष्ठ योग-भूमि है । यहाँ मुझे एक समुनि इत्यादिका साथ रहता है । ४५ भडाँच, श्रावण सुदी १०, १९४५ जगत्में बाह्यभावसे व्यवहार करो, और अंतरंगमें एकांत शीतलीभूत अर्थात् निर्लेप रहो, यही मान्यता और उपदेश है। ४६ बम्बई, भाद्रपद वदी ४, शुक्र. १९४५ मेरे ऊपर समभावसे शुद्ध राग रखो, इससे अधिक और कुछ न करो । धर्मध्यान और व्यवहार इन दोनोंकी संभाल रक्खो । लोभी गुरु, गुरु-शिष्य दोनोंकी अधोगतिका कारण है । मैं एक संसारी हूँ, मुझे अल्पज्ञान है । तुम्हें शुद्ध गुरुकी ज़रूरत है। ४७ बम्बई, भाद्रपद वदी १२ शनि. १९४५ (वंदामि पादे प्रवर्द्धमान ) प्रतिमासंबंधी विचारोंके कारण यहाँके समागममें आनेवाले लोग बिलकुल प्रतिकूल रहते हैं। इन्हीं मतभेदोंके कारण आत्माने अनंत कालमें और अनंत जन्ममें भी आत्म-धर्म नहीं पाया, यही कारण, है कि सत्पुरुष उसको पसंद नहीं करते, परन्तु स्वरूप श्रेणीकी ही इच्छा करते हैं।
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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