SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 245
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १५९ पत्र ४८] विविध पन आदि संग्रह-२१वाँ वर्ष पार्श्वनाथ परमात्माको नमस्कार ४८ बम्बई, आसोज वदी २ गुरु. १९४५ जगत्को सुंदर बतानेकी अनंतबार कोशिश की, परन्तु उससे वह सुन्दर नहीं हुआ; क्योंकि अबतक परिभ्रमण और परिभ्रमणके हेतु मौजूद रहते हैं। यदि आत्माका एक भी भव सुन्दर हो जाय, सुन्दरतापूर्वक बीत जाय, तो अनंत भवकी कसर निकल जाय; ऐसा मैं लघुत्वभावसे समझा हूँ, और यही करनेमें मेरी प्रवृत्ति है। इस महाबंधनसे रहित होनेमें जो जो साधन और पदार्थ श्रेष्ठ लगें उन्हें ग्रहण करना, यही मान्यता है । तो फिर उसके लिये जगत्की अनुकूलता-प्रतिकूलताको क्या देखना ! वह चाहे जैसे बोले, परन्तु आत्मा यदि बंधनरहित होती हो, समाधिमय दशा प्राप्त करती हो तो कर लेना । ऐसा करनेसे सदाके लिये कीर्ति-अपकीर्तिसे छूट जा सकेंगे। इस समय इनके और इनके पक्षके लोगोंके मेरे विषयमें जो विचार हैं वे मेरे ध्यानमें है; परन्तु उनको भूल जाना ही श्रेयस्कर है । तुम निर्भय रहना; मेरे विषयमें कोई कुछ कहे तो उसे सुनकर चुप रहना; उसके लिये कुछ भी शोक-हर्ष मत करना । जिस पुरुषपर तुम्हारा प्रशस्त राग है, उसके इष्टदेव परमात्मा जिन महायोगीन्द्र पार्श्वनाथ आदिका स्मरण रखना, और जैसे बने वैसे निर्मोही होकर मुक्त दशाकी इच्छा करना। जीनेके संबंधमें अथवा जीवनकी पूर्णताके संबंधमें कोई संकल्प-विकल्प नहीं करना। उपयोगको शुद्ध करनेके लिये जगत्के संकल्प-विकल्पोंको भूल जाना; पार्श्वनाथ आदि योगीश्वरकी दशाकी स्मृति करना; और वही अभिलाषा रक्खे रहना, यही तुम्हें पुनः पुनः आशीर्वादपूर्वक मेरी शिक्षा है । यह अल्पज्ञ आत्मा भी उसी पदकी अभिलाषिणी और उसी पुरुषके चरणकमलमें तल्लीन हुई दीन शिष्य है, और तुम्हें भी ऐसी ही श्रद्धा करनेकी शिक्षा देती है । वीरस्वामीका उपदेश किया हुआ द्रव्य, क्षेत्र, काल भावसे सर्व-स्वरूप यथातथ्य है, यह मत भूलना । उसकी शिक्षाकी यदि किसी भी प्रकारसे विराधना हुई हो तो उसके लिये पश्चात्ताप करना । इस कालकी अपेक्षासे मन, वचन, कायाको आत्मभावसे उसकी गोदमें अर्पण करो, यही मोक्षका मार्ग है । जगत्के सम्पूर्ण दर्शनोंकी-मतोंकी श्रद्धाको भूल जाना, जैनसंबन्धी सब विचार भूलकर केवल उन सत्पुरुषोंके अद्भुत, योगस्फुरित चरित्रमें ही अपना उपयोग लगाना। इस अपने माने हुए " सम्मान्य पुरुष " के लिये किसी भी प्रकारसे हर्ष-शोक नहीं करना । उसकी इच्छा केवल संकल्प-विकल्पसे रहित होनेकी ही है । उसको इस विचित्र जगत्से कुछ भी संबंध अथवा लेना देना नहीं है। इसलिये उसमेंसे उसके लिये कुछ भी विचार बँधे अथवा बोले जॉय, तो भी अब उनकी ओर जानेकी इच्छा नहीं है । जगत्मेंसे जो परमाणु पूर्वकालमें इकट्ठे किये हैं, उन्हें धीमे धीमे उसे देकर ऋणमुक्त हो जाना; यही उसकी निरंतर उपयोगपूर्ण, प्रिय, श्रेष्ठ और परम अभिलाषा है इसके सिवाय उसे कुछ भी आता जाता नहीं, और न उसे दूसरी कुछ चाहना ही है; उसका जो कुछ विचरना है वह उसके पूर्वकमौके कारण ही है, ऐसा समझकर परम संतोष रखना। यह बात गुप्त रखना । हम क्या मानते हैं, और हम कैसे बर्ताव करते हैं, इस बातको जगत्को दिखानेकी जरूरत नहीं । परन्तु आत्मासे इतना ही पूंछनेकी जरूरत है कि यदि तू मुक्तिकी इच्छा करती
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy