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________________ पत्र ४३, ४४] विविध पत्र आदि संग्रह-२१वाँ वर्ष बुद्धभगवान्का चरित्र मनन करने योग्य है; यह कथन पक्षपातरहित है। अब मैं कुछ आध्यात्मिक तत्त्वोंसे युक्त वचनामृत लिख सकूँगा। धर्मोपजीवनके इच्छुक रायचन्द्रका विनययुक्त प्रणाम. ४३ ववाणीआ, आषाढ वदी १२ बुध. १९४५ महासतीजी मोक्षमाला श्रवण करती हैं, यह बहुत सुख और लाभ दायक है । उनको मेरी तरफसे विनति करना कि वे इस पुस्तकको यथार्थ श्रवण करें और उसका मनन करें। इसमें जिनेश्वरके सुंदर मार्गसे बाहरका एक भी अधिक वचन रखनेका प्रयत्न नहीं किया गया । जैसा अनुभवमें आया और कालभेद देखा वैसे ही मध्यस्थतासे यह पुस्तक लिखी है । मुझे आशा है कि महासतीजी इस पुस्तकको एकाप्रभावसे श्रवण करके आत्म-कल्याणमें वृद्धि करेंगी। र भडौंच, वि. सं. १९४५ श्रावण सुदी ३ बुध. बजाणा नामके गाँवसे लिखा हुआ मेरा एक विनय-पत्र आपको मिला होगा। मैं अपनी निवासभूमिसे लगभग दो माससे सत्योग और सत्संगकी वृद्धि करनेके लिये प्रवासरूपसे कुछ स्थलोंमें विहार कर रहा हूँ। लगभग एक सप्ताहमें आपके दर्शन और समागमकी प्राप्तिके लिये मेरा वहाँ आगमन होना संभव है। सब शास्त्रोंको जाननेका, क्रियाका, ज्ञानका, योगका और भक्तिका प्रयोजन अपने स्वरूपकी प्राप्ति करना ही है और यदि ये सम्यक् श्रेणियाँ आत्मगत हो जॉय तो ऐसा होना प्रत्यक्ष संभव है; परन्तु इन वस्तुओंको प्राप्त करनेके लिये सर्व-संग-परित्यागकी आवश्यकता है। केवल निर्जनावस्था और योगभूमिमें वास करनेसे सहज समाधिकी प्राप्ति नहीं होती, वह तो नियमसे सर्व-संग-परित्यागमें ही रहती है । देश (एकदेश ) संग-परित्यागमें केवल उसकी भजना ही संभव है। जबतक पूर्वकर्मके बलसे गहवास भोगना बाकी है, तबतक धर्म, अर्थ और कामको उल्लसित-उदासीन भावसे सेवन करना योग्य है । बाह्यभावसे गृहस्थ-श्रेणी होनेपर अंतरंग निग्रंथ-श्रेणीकी आवश्यकता है, और जहाँ यह हुई वहाँ सर्वसिद्धि है । इस श्रेणीमें मेरी आत्माभिलाषा बहुत महिनोंसे रहा करती है । कई एक व्यवहारोपाधिके कारण धर्मोपजीवनकी पूर्ण अभिलाषा सफल नहीं हो सकती; किन्तु उससे प्रत्यक्ष ही आत्माको सत्पदकी सिद्धि होती है। यह बात सर्वमान्य ही है, और इसमें किसी खास वय अथवा बेषकी अपेक्षा नहीं है। निग्रंथके उपदेशको अचलभावसे और विशेषरूपसे मान्य करते हुए अन्य दर्शनोंके उपदेशमें मध्यस्थता रखना ही योग्य है। चाहे किसी भी रास्तेसे और किसी दर्शनसे कल्याण होता हो तो फिर मतांतरकी कोई अपेक्षा ढूँढ़ना योग्य नहीं । जिस अनुप्रेक्षासे, जिस दर्शनसे, जिस ज्ञानसे आत्मत्व प्राप्त होता हो वही अनुप्रेक्षा, वही दर्शन और वही ज्ञान सर्वोपरि है तथा जितनी आत्मायें पार हुई है, वर्तमानमें पार हो रही है, और भविष्यमें पार होंगी वे सब इस एक ही भावको पाकर हुई हैं। हम इस भावको सब तरहसे प्राप्त करें यही इस मिले हुए श्रेष्ठ जन्मकी सफलता है।
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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