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________________ १५६ श्रीमद् राजवन्द्र [पत्र ४१, ४२ __सब दोषोंकी क्षमा माँगकर यह पत्र पूरा ( अपूर्ण स्थितिसे ) करता हूँ। यदि आपकी आज्ञा होगी तो ऐसा समय निकाला जा सकेगा कि जिससे आत्मत्व दृढ हो। __सुगमता न होनेके कारण लेखमें दोष आना संभव है, परन्तु कुछ लाचारी थी; अथवा सरलताका उपयोग करनेसे आत्मत्वकी विशेष वृद्धि हो सकती है। वि. धर्मजीवनका इच्छुक रायचन्द्र खजीभाईका विनयप्रभावसे प्रशस्त प्रणाम. ४१ अहमदाबाद, वि.सं.१९४५ ज्येष्ठ सुदी १२ भौम. मैंने आपको ववाणीआ बंदरसे पुनर्जन्मके संबंधों परोक्ष ज्ञानकी अपेक्षासे एक-दो विचार लिखे थे। इस विषयमें अवकाश पाकर कुछ बतानेके बाद, उस विषयका प्रत्यक्ष अनुभवगम्य ज्ञानसे जो कुछ निश्चय मेरी समझमें आया है, वह यहाँ कहना चाहता हूँ। वह पत्र आपको ज्येष्ठ सुदी ५ को मिला होगा। अवकाश मिलनेपर यदि कुछ उत्तर देना योग्य मालूम हो तो उत्तर देकर, नहीं तो केवल पहुँच लिखकर शान्ति पहुँचावें, यही निवेदन है। निग्रंथद्वारा उपदेश किये हुए शास्त्रोंकी खोजके लिये करीब सात दिनसे मेरा यहाँ आना हुआ है। धर्मोपजीवनके इच्छुक रायचन्द्र रवजीभाईका यथाविधि प्रणाम. १२ बजाणा (काठियावाड़), वि.सं.१९४५ आसाद सुदी १५शुक्र. आपका आषाढ़ सुदी ७ का लिखा हुआ पत्र मुझे बढ़वाण केम्पमें मिला। उसके बाद मेरा यहाँ आना हुआ, इस कारण पहुँच लिखनेमें विलंब हुआ। पुनर्जन्मसंबंधी मेरे विचार आपको अनुकूल हुए इस कारण इस विषयमें मुझे आपका सहारा मिल गया। आपने जो अंतःकरणीय-आत्मभावजन्य-अभिलाषा प्रगट की है, वैसी आशा सत्पुरुष निरंतर रखते आये हैं । उन्होंने ऐसी दशाको मन, वचन, काया और आत्मासे प्राप्त की है और उस दशाके प्रकाशसे दिव्य हुई आत्मासे वाणीद्वारा सर्वोत्तम आध्यात्मिक वचनामृतोंको प्रदर्शित किया है जिनकी आप जैसे सत्पात्र मनुष्य निरंतर सेवा करते हैं; और यही अनंतभवके आत्मिक दुःखको दूर करनेकी परम औषधि है। .. सब दर्शन पारिणामिक भावसे मुक्तिका उपदेश करते हैं, यह निःसंशय है, परन्तु यथार्थ दृष्टि दुए बिना सब दर्शनोंका तात्पर्यज्ञान हृदयगत नहीं होता। यह होनेके लिये सत्पुरुषोंकी प्रशस्तभक्ति, उनके पादपंकज और उनके उपदेशका अवलम्बन, निर्विकार ज्ञानयोग इत्यादि जो साधन हैं वे शुद्ध उपयोगसे मान्य होने चाहिये। पुनर्जन्मका प्रत्यक्ष निश्चय तथा अन्य आध्यात्मिक विचारोंको फिर कभी प्रसंगानुकूल कहनेकी आज्ञा चाहता हूँ।
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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