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________________ पत्र ४०] विविध पत्र आदि संग्रह-२१वाँ वर्ष प्रत्येक पल भिन्न भिन्न स्वरूपसे बीता हुआ मालूम होगा (उसके भिन्न भिन्न होनेका कारण कुछ तो होगा ही) । एक मनुष्यने ऐसा दृढ़ संकल्प किया कि मैं जीवनपर्यंत स्त्रीका चितवनतक भी न करूँगा परन्तु पाँच पल भी न बीत पाये और उसका चितवन हो गया, तो फिर उसका कुछ तो कारण होना ही चाहिये । मुझे जो शास्त्रका अल्पज्ञान हुआ है उससे मैं यह कह सकता हूँ कि वह पूर्वकर्मके किसी भी अंशका उदय होना चाहिये । कैसे कर्मका ! तो कहूँगा कि मोहनीय कर्मका। उसकी किस प्रकृतिका ? तो कहूँगा कि पुरुषवेदका ! (पुरुषवेदकी पन्द्रह प्रकृतियाँ हैं।) पुरुषवेदका उदय दृढ़ संकल्पसे रोकनेपर भी हो गया, उसका कारण अब कह सकते हैं कि वह कोई भूतकालीन कारण होना चाहिये; और अनुपूर्वीसे उसका स्वरूप विचार करनेसे वह कारण पुनर्जन्म ही सिद्ध होगा। इस बातको बहुतसे दृष्टांतोंद्वारा कहनेकी - मेरी इच्छा थी, परन्तु जितना सोचा था उससे आधिक कथन बढ़ गया है; और आत्माको जो बोध हुआ है उसे मन यथार्थ नहीं जान सकता, और मनके बोधको वचन यथार्थ नहीं कह सकते, और वचनके कथन-बोधको कलम लिख नहीं सकती; ऐसा होनेके कारण, और इस विषयके ऊहापोहमें बहुतसे रूढ़ शब्दोंके उपयोगकी आवश्यकता होनेके कारण अभी हाल तो इस विषयको अपूर्ण छोड़े देता हूँ। यह अनुमान प्रमाण हुआ। प्रत्यक्ष प्रमाणके संबंधमें वह ज्ञानीगम्य होगा तो उसे फिर, अथवा भेंट होनेका अवसर मिला तो उस समय कुछ कह सकूँगा । आपके उपयोगमें ही रम रहा हूँ, तो भी आपकी प्रसन्नताके लिये एक-दो वचनोंको यहाँ लिखता हूँ: १. सबकी अपेक्षा आत्मज्ञान श्रेष्ठ है। २. धर्म-विषय, गति, आगति निश्चयसे हैं। ३. ज्यों ज्यों उपयोगकी शुद्धता होती जाती है त्यों त्यों आत्मज्ञान प्राप्त होता जाता है। ४. इसके लिये निर्विकार दृष्टिकी आवश्यकता है। ५. 'पुनर्जन्म है ' यह योगसे, शास्त्रसे और स्वभावसे अनेक पुरुषोंको सिद्ध हुआ है। . इस कालमें इस विषयमें अनेक पुरुषोंको निःशंका नहीं होती, उसका कारण केवल सात्विकताकी न्यूनता, त्रिविध तापकी मूर्छा, श्रीगोकुलचरित्रमें आपकी बताई हुई निर्जनावस्थाकी कमी, सत्संगका न मिलना, स्वमान और अयथार्थ दृष्टि ही हैं। आपको अनुकूलता होगी तो इस विषयमें विशेष फिर कहूँगा । इससे मुझे आत्मोज्ज्वलताका परमलाम है, इस कारण आपको अनुकूलता होगी ही। यदि समय हो तो दो चार बार इस पत्रके मनन करनेसे कहा हुआ अल्प आशय भी आपको बहुत दृष्टिगोचर हो जायगा। शैलीके कारण विस्तारसे कुछ लिखा है, तो भी मैं समझता हूँ कि जैसा चाहिये वैसा नहीं समझाया जा सका; परन्तु मैं समझता हूँ कि इस विषयको धीरे धीरे आपके पास सरलरूपमें रख सकूँगा। बुद्धभगवान्का जीवनचरित्र मेरे पास नहीं आया । अनुकूलता हो तो भिजवानेकी सूचना करें । सत्पुषोंका चरित्र दर्पणरूप है । बुद्ध और जैनधमके उपदेशमें महान् अन्तर है।
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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