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________________ श्रीमद राजचन्द्र .. [पत्र ४० चौथे गुणस्थानको प्राप्त पुरुषको पात्रताका प्राप्त होना माना जा सकता है। वहाँ धर्मध्यानकी गौणता है । पाँचवेंमें मध्यम गौणता है । छहेमें मुख्यता तो है परन्तु वह मध्यम है । और सातवेंमें उसकी मुख्यता है। हम गृहस्थाश्रममें सामान्य विधिसे अधिकसे अधिक पाँचवें गुणस्थानमें तो आ सकते हैं। इसके सिवाय भावकी अपेक्षा तो कुछ और ही बात है ! इस धर्मध्यानमें चार भावनाओंसे भूषित होना संभवित है१ मैत्री-सब जगत्के जीवोंकी ओर निर्वैर बुद्धि । २ प्रमोद-किसीके अंशमात्र गुणको भी देखकर रोमांचित होकर उल्लसित होना । ३ करुणा-जगत्के जीवोंके दुःख देकर अनुकंपा करना । ४ माध्यस्थ अथवा उपेक्षा-शुद्ध समदृष्टिके बलवीर्यके योग्य होना। इसके चार आलंबन हैं। इसकी चार रुचि हैं । इसके चार पाये हैं । इस प्रकार धर्मध्यान अनेक भेदोंमें विभक्त है। जो पवन (श्वास ) का जय करता है, वह मनका जय करता है। जो मनका जय करता है वह आत्म-लीनता प्राप्त करता है-ऐसा जो कहा जाता है वह तो व्यवहारमात्र है । निश्चयसे निश्चय अर्थकी अपूर्व योजना तो सत्पुरुषका मन ही जानता है, क्योंकि श्वासका जय करते हुए भी सत्पुरुषकी आज्ञाका भंग होनेकी संभावना रहती है, इसलिये ऐसा श्वास-जय परिणाममें संसारको ही बढ़ाता है। श्वासका जय वही है कि जहाँ वासनाका जय है। उसके दो साधन हैं-सद्गुरू और सत्संग । उसकी दो श्रेणियाँ हैं—पर्युपासना और पात्रता। उसकी दो प्रकारसे वृद्धि होती है—परिचय और पुण्यानुबंधी पुण्यता । सबका मूल एक आत्माकी सत्पात्रता ही है। हालमें तो इस विषयमें इतना ही लिखता हूँ। प्रवीणसागर समझपूर्वक पढ़ा जाय तो यह दक्षता देनेवाला ग्रंथ है; नहीं तो यह अप्रशस्त रागरंगोंको बढ़ानेवाला ग्रंथ है। ४० ववाणीआ, वि. १९४५ ज्येष्ठ सुदी ४ रवि. पक्षपातो न मे वीरे, न देषः कपिलादिषु । युक्तिमद्वचनं यस्य, तस्य कार्यः परिग्रहः॥ . -श्रीहरिभद्राचार्य आपका वैशाख वदी ६ का धर्म-पत्र मिला । उस पत्रपर विचार करनेके लिये विशेष अवकाश लेनेसे यह उत्तर लिखनेमें मुझसे इतना विलम्ब हुआ है, इसलिये इस विलम्बके लिये क्षमा करें । ___उस पत्रमें आप लिखते हैं कि किसी भी मार्गसे आध्यात्मिक ज्ञानका संपादन करना, यह ज्ञानियोंका उपदेश है, यह वचन मुझे भी मान्य है। प्रत्येक दर्शनमें आत्माका ही उपदेश किया
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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