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________________ १५१ विविध पत्र मादि संग्रह-२१वाँ वर्ष मौखिक-चर्चा हुई थी वह आपको स्मरण होगी, ऐसा समझकर इस चर्चाके संबंधमें कुछ विशेष कहनेकी आज्ञा नहीं लेता। धर्मके संबंधमें माध्यस्थ, उच्च और दंभरहित विचारोंके कारण आपके ऊपर मेरा कुछ विशेष प्रशस्त अनुराग हो गया है इसलिये मैं कभी कभी आध्यात्मिक शैलीसंबंधी प्रश्न आपके समीप रखनेकी आज्ञा लेनेका आपको कष्ट दिया करता हूँ। यदि योग्य मालूम हो तो आप अनुकूल हों।। मैं अर्थ अथवा वयकी दृष्टिसे तो वृद्धस्थितिवाला नहीं हूँ; फिर भी कुछ ज्ञान-वृद्धता प्राप्त करनेके वास्ते आप जैसोंके सत्संगका, आप जैसांके विचारोंका और सत्पुरुषकी चरण-रजके सेवन करनेका अभिलाषी हूँ। मेरी यह बालवय विशेषतः इसी अभिलाषामें बीती है और उससे मैं जो कुछ भी समझ सका हूँ उसे समयानुसार दो शब्दोंमें आप जैसोंके समीप रखकर विशेष आत्म-हित कर सकूँ; यही इस पत्रके द्वारा याचना करता हूँ। इस कालमें आत्मा किसके द्वारा, किस प्रकार और किस श्रेणीमें पुनर्जन्मका निश्चय कर सकती है, इस संबंधमें जो कुछ मेरी समझमें आया है उसे यदि आपकी आज्ञा होगी तो आपके समीप रक्लूँगा। वि. आपके माध्यस्थ विचारोंका अभिलाषीरायचंद वजीभाईका पंचांगी प्रशस्तभावसे प्रणाम. ३९ ववाणीआ, वैशाख सुदी १२, १९४५ सत्पुरुषोंको नमस्कार परमात्माका ध्यान करनेसे परमात्मा हो जाते हैं । परन्तु उस ध्यानको सत्पुरुषके चरणकमलकी विनयोपासना बिना आत्मा प्राप्त नहीं कर सकती, यह निग्रंथ भगवान्का सर्वोत्कृष्ट वचनामृत है। .. तुम्हें मैंने चार भावनाओंके विषयमें पहिले कुछ सूचित किया था। उस सूचनाको यहाँ कुछ विशेषतासे लिखता हूँ। आत्माको अनंत भ्रमणासे स्वरूपमय पवित्र श्रेणीमें लाना यह कैसा निरुपम सुख है ! वह कहते हुए कहा नहीं जाता, लिखते हुए लिखा नहीं जाता, और मनमें विचार करनेपर उसका विचार भी नहीं होता। . इस कालमें शुक्लध्यानका पूरापूरा अनुभव भारतमें असंभव है । हाँ उस ध्यानकी परोक्ष कथारूप अमृत-रस कुछ पुरुष प्राप्त कर सकते हैं। परन्तु मोक्षके मार्गकी अनुकूलताका सबसे पहला राजमार्ग धर्मध्यान ही है । इस कालमें रूपातीततकके धर्मध्यानकी प्राप्ति कुछ सत्पुरुषोंको स्वभावसे, कुछको सद्गुरुरूप निरुपम निमित्तसे. और कुछको सत्संग आदि अनेक साधनोंसे हो सकती है, परन्तु ऐसे पुरुष निर्मथमतके माननेवाले लाखोंमें भी कोई विरले ही निकल सकते हैं । बहुत करके वे सत्पुरुष त्यागी होकर एकांत भूमिमें ही वास करते हैं। बहुतसे बाह्य अत्यागके कारण संसारमें रहनेपर भी संसारीपना ही दिखलाते हैं। पहिले पुरुषका ज्ञान प्रायः मुख्योत्कृष्ट और दूसरेका गौणोत्कृष्ट गिना जा सकता है।
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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