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________________ पत्र ४.] विविध पत्र आदि संग्रह-२१वाँ वर्ष १५३ गया है, और सबका प्रयत्न मोक्षके लिये ही है । तो भी इतना तो आप भी मानेंगे कि जिस मार्गसे आत्माको आत्मत्व, सम्यग्ज्ञान, और यथार्थ दृष्टि मिले वही मार्ग सत्पुरुषकी आज्ञानुसार मान्य करना चाहिये । यहाँ किसी भी दर्शनका नामोल्लेख करनेकी आवश्यकता नहीं है, फिर भी यह तो कहा जा सकता है कि जिस पुरुषका वचन पूर्वापर अखंडित है, उसके द्वारा उपदेश किया हुआ दर्शन ही पूर्वापर हितकारी है। जहाँसे आत्मा 'यथार्थ दृष्टि' अथवा 'वस्तुधर्म' प्राप्त करे वहींसे सम्यग्ज्ञान प्राप्त होता है, यह सर्वमान्य बात है। . आत्मत्व पानेके लिये क्या हेय है, क्या उपादेय है, और क्या ज्ञेय है, इस विषयमें प्रसंग पाकर सत्पुरुषकी आज्ञानुसार आपको थोड़ा थोड़ा लिखता रहूँगा । यदि ज्ञेय, हेय, और उपादेयरूपसे कोई पदार्थ-एक परमाणु भी नहीं जाना तो वहाँ आत्मा भी नहीं जानी । महावीरके उपदेश किये हुए आचारांग नामके सैद्धांतिक शास्त्रमें कहा है कि जे एगं जाणई से सव्वं जाणई, जे सव्वं जाणई से एगं जाणई-अर्थात् जिसने एकको जाना उसने सब जाना, जिसने सब जाना उसने एकको जाना । यह वचनामृत ऐसा उपदेश करता है कि जब कोई भी एक आत्माको जाननेके लिये प्रयत्न करेगा, उस समय उसे सब जाननेका प्रयत्न करना होगा; और सब जाननेका प्रयत्न केवल एक आत्माके ही जाननेके लिये है। फिर भी जिसने विचित्र जगत्का स्वरूप नहीं जाना वह आत्माको नहीं जानता-यह उपदेश अयथार्थ नहीं ठहरता। जिसे यह ज्ञान नहीं हुआ कि आत्मा किस कारणसे, कैसे, और किस प्रकारसे बँध गई है, उसे इस बातका भी ज्ञान नहीं हो सकता कि वह किस कारणसे, कैसे, और किस प्रकार मुक्त हो सकती है। और यह ज्ञान न हुआ तो यह वचनामृत ही प्रमाणभूत ठहरता है। महावीरके उपदेशकी मुख्य नींव ऊपरके वचनामृतसे शुरु होती है; और उन्होंने उसका स्वरूप सर्वोत्तमरूपसे समझाया है । इसके विषयमें यदि आपको अनुकूलता होगी तो आगे कहूँगा। यहाँ आपको एक यह भी निवेदन कर देना योग्य है कि महावीर अथवा किसी भी दूसरे उपदेशकके पक्षपातके कारण मेरा कोई भी कथन अथवा मेरी कोई मान्यता नहीं है। परन्तु आत्मत्व पानेके लिये जिसका उपदेश अनुकूल है उसीके लिये मुझे पक्षपात (1)-दृष्टिराग-और प्रशस्तराग है, अथवा उसीके लिये मेरी मान्यता है, और उसीके आधारसे मेरी प्रवृत्ति भी है; इसलिये यदि मेरा कोई भी कथन आत्मत्वको, बाधा पहुँचानेवाला हो तो उसे बताकर उपकार करते रहिये । प्रत्यक्ष सत्संगकी तो बलिहारी ही है, और वह पुण्यानुबंधी पुण्यका ही फल है; तो भी जबतक ज्ञानी-दृष्टिके अनुसार परोक्ष सत्संग मिलता रहेगा तबतक उसे मैं अपना सद्भाग्य ही समझूगा। २. निग्रंथ शासन ज्ञानवृद्धको सर्वोत्तम वृद्ध मानता है । जातिवृद्धता, पर्यायवृद्धता इत्यादि वृद्धताके अनेक भेद हैं। परन्तु ज्ञानवृद्धताके विना ये सब वृद्धतायें केवल नामकी वृद्धतायें अथवा शून्य वृद्धतायें ही हैं। ३. पुनर्जन्मके संबंधमें अपने विचार प्रगट करनेके लिये आपने सूचन किया था, उसके संबंधों यहाँ केवल प्रसंग जितना मात्र संक्षेपसे लिखता हूँ:
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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