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________________ मृगापुत्र] भावनाबोध शंकारहित दश प्रकारके यतिधर्मका पालना दुष्कर है। जैसे भुजाओंसे स्वयंभूरमण समुद्रका पार करना दुष्कर है वैसे ही उपशमहीन मनुष्योंका उपशमरूपी समुद्रको पार कर जाना दुष्कर है। हे पुत्र ! शब्द, रूप, गंध, रस, स्पर्श इन पाँच प्रकारके मनुष्यसंबंधी भोगोंको भोगकर भुक्तभोगी होकर तू वृद्ध अवस्थामें धर्मका आचरण करना । माता पिताके भोगसंबंधी उपदेश सुनकर वह मृगापुत्र माता पितासे इस तरह बोलाः जिसके विषयकी ओर रुचि ही नहीं उसे संयमका पालना कुछ भी दुष्कर नहीं। इस आत्माने शारीरिक और मानसिक वेदनाको असातारूपसे अनंत बार सहन की है-भोगी है । इस आत्माने महादुःखसे पूर्ण भयको उत्पन्न करनेवाली अति रौद्र वेदनाएँ भोगी हैं । जन्म, जरा और मरण ये भयके धाम हैं। चतुर्गतिरूपी संसार-अटवीमें भटकते हुए मैंने अति रौद्र दुःख भोगें हैं । हे गुरुजनो ! मनुष्य लोकमें अग्नि जो अतिशय उष्ण मानी गई है, इस अग्निसे भी अनंतगुनी उष्ण ताप-वेदना इस आत्माने नरकमें भोगी है । मनुष्यलोकमें ठंड जो अति शीतल मानी गई है, इस ठंडसे भी अनंतगुनी ठंडको असातापूर्वक इस आत्माने नरकमें भोगी है। लोहेके भाजनमें ऊपर पैर बाँधकर और नीचे मस्तक करके देवताओंद्वारा विक्रियासे बनाई हुई धधकती हुई अग्निमें आक्रंदन करते हुए इस आत्माने अत्यन्त उप दुःख भोगा है । महादवकी अग्नि जैसी मरुदेशकी वज्रमय बालके समान कदंब नामकी नदीकी बालू है, पूर्वकालमें ऐसी उष्ण बालूमें मेरी यह आत्मा अनंतबार जलाई गई है। ___ आक्रंदन करते हुए मुझे भोजन पकानेके बरतनमें पकानेके लिये अनंतबार पटका गया है। नरकमें महारौद्र परमाधार्मिकोंने मुझे मेरे कड़वे विपाकके लिये अनंतोंबार ऊँचे वृक्षकी शाखासे बाँधा है; बांधवरहित मुझे लम्बी लम्बी आरियोंसे चीरा है; अति तीक्ष्ण कंटकोंसे व्याप्त ऊँचे शाल्मलि वृक्षसे बाँधकर मुझे महान् खेद पहुँचाया है। पाशमें बाँधकर आगे पीछे खींचकर मुझे अत्यन्त दुःखी किया है। महा असह्य कोल्हूमें ईखकी तरह अति रौद्रतासे आक्रन्दन करता हुआ मैं पेला गया हूँ। यह सब जो भोगना पड़ा वह केवल अपने अशुभ कर्मके अनंतोंबारके उदयसे ही भोगना पड़ा । साम नामके परमाधार्मिकोंने मुझे कुत्ता बनाया; शबल नामके परमाधार्मिकोंने उस कुतेके रूपमें मुझे जमीनपर गिराया; जीर्ण वस्त्रकी तरह फाड़ा; वृक्षकी तरह काटा; इस समय मैं अत्यन्त छटपटाता था। विकराल खड्गसे, भालेसे तथा दूसरे शस्त्रोंसे उन प्रचंडोंने मेरे टुकड़े टुकड़े किये । नरकमें पापकर्मसे जन्म लेकर महानसे महान् दुःखोंके भोगनेमें तिलभर भी कमी न रही थी । परतंत्र मुझको अत्यंत प्रज्ज्वलित रथमें रोजकी तरह जबर्दस्ती जोता गया था। मैं देवताओंकी वैक्रियक अग्निमें महिषकी तरह जलाया गया था। मैं भाइमें भूना जाकर असातासे अत्युग्र वेदना भोगता था । मैं ढंक और गिद्ध नामके विकराल पक्षियोंकी सणसीके समान चोंचोंसे चूंथा जाकर अनंत वेदनासे कायर होकर विलाप करता था। तृषाके कारण जल पीनेकी आतुरतामें वेगसे दौड़ते हुए मैं छुरेकी धारके समान अनंत दुःख देनेवाले वैतरणीके पानीको पाता था। वहाँ मैं तीव्र खड्गकी धारके समान पत्तोंवाले और महातापसे संतप्त ऐसे असिपत्र वनमें जाता था । वहाँपर पूर्वकालमें मुझे अनंत बार छेदा गया था । मुद्गरसे, तीव्र शस्त्रसे, त्रिशूलसे, मूसलसे और गदासे मेरा शरीर भन्न किया गया था । शरणरूप सुखके बिना मैं अशरणरूप अनंत दुःखको पाता था। मुझे वनके समान कुरेकी तीक्ष्ण धारसे, छुरीसे और कैंचीसे काटा गया था। मेरे खंड खंड टुकड़े किये गये थे । मुझे आड़ा आरपार काटा गया था। चररर शब्द करती हुई मेरी त्वचा उतारी गई थी। इस प्रकार मैंने अनंत दुःख पाये थे।
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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