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________________ श्रीमद् राजचन्द्र [मृगापुत्र मृगापुत्रके ऐसे वचनोंको सुनकर मृगापुत्रके माता पिता शोकार्त होकर बोले, हे पुत्र ! यह तू क्या कहता है ! चारित्रका पालना बहुत कठिन है । उसमें यतियोंको क्षमा आदि गुणोंको धारण करना पड़ता है, उन्हें निबाहना पड़ता है, और उनकी यत्नसे रक्षा करनी पड़ती है। संयतिको मित्र और शत्रुमें समभाव रखना पड़ता है। संयतिको अपनी और दूसरोंकी आत्माके ऊपर समबुद्धि रखनी पड़ती है, अथवा सम्पूर्ण जगत्के ही ऊपर समानभाव रखना पड़ता है-ऐसे पालनेमें दुर्लभ प्राणातिपातविरति नामके प्रथम व्रतको जीवनपर्यन्त पालना पड़ता है। संयतिको सदैव अप्रमादपनेसे मृषा वचनका त्यागना, हितकारी वचनका बोलना-ऐसे पालनेमें दुष्कर दूसरे व्रतको धारण करना पड़ता है । संयतिको दंतशोधनके लिये एक सींकतक भी विना दिये हुए न लेना, निर्वद्य और दोषरहित भिक्षाका ग्रहण करना-ऐसे पालनेमें दुष्कर तीसरे व्रतको धारण करना पड़ता है । काम-भोगके स्वादको जानने और अब्रह्मचर्य धारण करनेका त्याग करके संयतिको ब्रह्मचर्यरूप चौथे व्रतको धारण करना पड़ता है, जिसका पालन करना बहुत कठिन है । धन, धान्य, दासका समुदाय, परिग्रह ममत्वका त्याग, सब प्रकारके आरंभका त्याग, इस तरह सर्वथा निर्ममत्वसे यह पाँचवा महाव्रत धारण करना संयतिको अत्यन्त ही विकट है । रात्रिभोजनका त्याग, और घृत आदि पदार्थोके वासी रखनेका त्याग, यह भी अति दुष्कर है। हे पुत्र ! तू चारित्र चारित्र क्या रटता है ? क्या चारित्र जैसी दूसरी कोई भी दुःखप्रद वस्तु है ! हे पुत्र ! क्षुधाका परिषह सहन करना, तृषाका परिषह सहन करना, ठंडका परिषह सहन करना, उष्ण-तापका परिषह सहन करना, डाँस मच्छरका परिषह सहन करना, आक्रोश परिषह सहन करना, उपाश्रयका परिषह सहन करना, तृण आदि स्पर्शका परिषह सहन करना, मलका परिषह सहन करना; निश्चय मान कि ऐसा चारित्र कैसे पाला जा सकता है ? वधका परिषह, और बंधके परिषह कैसे विकट हैं ! भिक्षाचरी कैसी दुर्लभ है ! याचना करना कैसा दुर्लभ है ? याचना करनेपर भी वस्तुका न मिलना यह अलाभ परिषह कितना कठिन है ! कायर पुरुषोंके हृदयको भेद डालनेवाला केशलोंच कैसा विकट है ! तू विचार कर, कर्म-वैरीके लिये रौद्ररूप ब्रह्मचर्य व्रतका पालना कैसा दुर्लभ है ! सचमुच, अधीर आत्माको यह सब अति अति विकट है। प्रिय पुत्र ! तु सुख भोगनेके योग्य है । तेरा सुकुमार शरीर अति रमणीय रीतिसे निर्मल स्नान करनेके तो सर्वथा योग्य है । प्रिय पुत्र ! निश्चय ही तू चारित्रको पालनेमें समर्थ नहीं है । चारित्रमें यावज्जीवन भी विश्राम नहीं । संयतिके गुणोंका महासमुदाय लोहेकी तरह बहुत भारी है । संयमके भारका वहन करना अत्यन्त ही विकट है। जैसे आकाश-गंगाके प्रवाहके सामने जाना दुष्कर है, वैसे ही यौवन वयमें संयमका पालना महादुष्कर है। जैसे स्रोतके विरुद्ध जाना कठिन है, वैसे ही यौवन अवस्थामें संयमका पालना महाकठिन है । जैसे भुजाओंसे समुद्रका पार करना दुष्कर है, वैसे ही युवा वयमें संयमगुण-समुद्रका पार करना महादुष्कर है । जैसे रेतका कौर नीरस है, वैसे ही संयम भी नीरस है । जैसे खड्गकी धारके ऊपर चलना विकट है वैसे ही तपका आचरण करना महाविकट है। जैसे सर्प एकांत अर्थात् सीधी दृष्टिसे चलता है, वैसे ही चारित्रमें ईर्यासमितिके कारण एकान्तरूपसे चलना महादुष्कर है। हे प्रिय पुत्र ! जैसे लोहेके चनोंको चबाना कठिन है वैसे ही संयमका पालना भी कठिन है। जैसे आनिकी शिखाका पान करना दुष्कर है वैसे ही यौवनमें यतिपना अंगीकार करना महादुष्कर है । जैसे अत्यंत मंद संहननके धारक कायर पुरुषका यतिपनेको धारण करना और पालना दुष्कर है; जैसे तराजूसे मेरु पर्वतका तोलना दुष्कर है, वैसे ही निश्चलपनेसे,
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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