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________________ श्रीमद् राजचन्द्र [मृगापुत्र मैं परवशतासे मृगकी तरह अनंतबार पाशमें पकड़ा गया था। परमाधार्मिकोंने मुझे मगर मच्छके रूपमें जाल डालकर अनंतबार दुःख दिया था। मुझे बाजके रूपमें पक्षीकी तरह जालमें फंसाकर अनंतबार मारा था । फरसा इत्यादि शत्रोंसे मुझे अनंतोंबार वृक्षकी तरह काटकर मेरे छोटे छोटे टुकड़े किये थे । जैसे लुहार हथोड़ों आदिके प्रहारसे लोहेको पीटता है वैसे ही मुझे भी पूर्वकालमें परमाधार्मिकोंने अनंतोंबार कूटा था। तांबा, लोहा और सासेको अग्निमें गालकर उनका कलकल शब्द करता हुआ रस मुझे अनंतबार पिलाया था। अति रौद्रतासे वे परमाधार्मिक मुझे ऐसा कहते जाते थे कि पूर्वभवमें तुझे माँस प्रिय था, अब ले यह माँस । इस तरह मैंने अपने ही शरीरके खंड खंड टुकड़े अनंतबार गटके थे। मद्यकी प्रियताके कारण भी मुझे इससे कुछ कम दुःख नहीं सहने पड़े । इस तरह मैंने महाभयसे, महात्राससे और महादुःखसे थरथर कांपते हुए अनंत वेदना भोगी थी। जो वेदनायें सहनेमें अति तीव्र, रौद्र और उत्कृष्ट काल स्थितिकी हैं, और जो सुननेम भी अति भयंकर हैं ऐसी वेदनायें उस नरकमें मैंने अनंतबार भोगी थीं । जैसी वेदना मनुष्यलोकमें दिखाई देती है उससे भी अनंतगुनी अधिक असातावेदनीय नरकमें थी। मैंने सर्व भवोंमें असातावेदनीय भोगी है । वहाँ क्षणमात्र भी सुख न था। इस प्रकार मृगापुत्रने वैराग्यभावसे संसारके परिभ्रमणके दुःखको कहा। इसके उत्तरमें उसके माता पिता इस तरह बोले, कि हे पुत्र ! यदि तेरी इच्छा दीक्षा लेनेकी है तो तू दीक्षा ग्रहण कर, परंतु चारित्रमें रोगोत्पत्तिके समय तेरी दवाई कौन करेगा ! दुःखनिवृत्ति कौन करेगा ! इसके बिना बड़ी कठिनता होगी! मृगापुत्रने कहा यह ठीक है, परन्तु आप विचार करें कि वनमें मृग और पक्षी अकेले ही रहते हैं, जब उन्हें रोग उत्पन्न होता है तो उनकी चिकित्सा कौन करता है ! जैसे वनमें मग अकेले ही विहार करते हैं वैसे ही मैं भी चारित्र-वनमें विहार करूँगा, और सत्रह प्रकारके शुद्ध संयममें अनुरागी होऊँगा, बारह प्रकारके तपका आचरण करूँगा, तथा मृगचर्यासे विचरूँगा। जब मगको वनमें रोगका उपद्रव होता है, तो वहाँ उसकी चिकित्सा कौन करता है ! ऐसा कहकर वह पुनः बोला, कि उस मृगको कौन औषधि देता है ? उस मृगके आनन्द, शांति और सुखको कौन पूँछता है ! उस मृगको आहार जल कौन लाकर देता है ! जैसे वह मृग उपद्रवरहित होनेके बाद गहन वनमें जहाँ सरोवर होता है, वहाँ जाता है, और घास पानी आदिका सेवन करके फिर यथेच्छ रूपसे विचरता है वैसे ही मैं भी विचरूँगा। सारांश यह है कि मैं इस प्रकारकी मृगचर्याका आचरण करूँगा। इस तरह मैं भी मृगके समान संयमवान होऊँगा। अनेक स्थलोंमें विचरता हुआ यति मृगके समान अप्रतिबद्ध रहे; यतिको चाहिये वह मृगके समान विचरकर मृगचर्याका सेवन करके, सावध दूर करके विचरे । जैसे मृग, तृण जल आदिकी गोचरी करता है वैसे ही यति भी गोचरी करके संयमभारका निर्वाह करे। वह दुराहारके लिये गृहस्थका तिरस्कार अथवा उसकी निंदा न करे, मैं ऐसे ही संपमका आचरण करूँगा। 'एवं पुत्तो जहासुखं' हे पुत्र! जैसे तुझे सुख हो वैसे कर ! इस प्रकार माता पिताने आज्ञा दे दी । आज्ञा मिलते ही जैसे महानाग कांचली त्यागकर चला जाता है, वैसे ही वह मृगापुत्र ममत्वभावको नष्ट करके संसारको त्यागकर संयम-धर्ममें सावधान हुआ और कंचन, कामिनी, मित्र, पुत्र, जाति और सगे संबंधियोंका परित्यागी हुआ । जैसे वस्त्रको झटककर धूलको शाब डालते हैं वैसे ही वह भी समस्त प्रपंचको त्यागकर दीक्षा लेनेके लिये निकल पड़ा । वह पवित्र पाँच महावतोंसे युक्त
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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