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________________ १०८ श्रीमद् राजचन्द्र [भरतेश्वर - मिथ्या ममत्यकी भ्रमणा दूर करनेके लिये और वैराग्यकी वृद्धिके लिये भावपूर्वक मनन करने योग्य राजराजेश्वर भरतके चरित्रको यहाँ उद्धृत करते हैं: भरतेश्वर जिसकी अश्वशालामें रमणीय, चतुर और अनेक प्रकारके तेजी अश्वोंका समूह शोभायमान होता था; जिसकी गजशालामें अनेक जातिके मदोन्मत्त हाथी झूम रहे थे; जिसके अंतःपुरमें नवयौवना, सुकुमारिका और मुग्धा स्त्रियाँ हजारोंकी संख्या शोभित हो रहीं थीं; जिसके खजानेमें विद्वानोंद्वारा चंचला उपमासे वर्णन की हुई समुद्रकी पुत्री लक्ष्मी स्थिर हो गई थी, जिसकी आज्ञाको देव-देवांगनायें आधीन होकर अपने मुकुट पर चढ़ा रहे थे, जिसके वास्ते भोजन करनेके लिये नाना प्रकारके षट्रस भोजन पल पलमें निर्मित होते थे; जिसके कोमल कर्णके विलासके लिये बारीक और मधुर स्वरसे गायन करनेवाली वारांगनायें तत्पर रहती थीं; जिसके निरीक्षण करनेके लिये अनेक प्रकारके नाटक तमाशे किये जाते थे; जिसकी यशःकीर्ति वायु रूपसे फैलकर आकाशके समान व्याप्त हो गई थी, जिसके शत्रुओंको सुखसे शयन करनेका समय न आया था; अथवा जिसके बैरियोंकी वनिताओंके नयनोंमेंसे सदा आँसू ही टपकते रहते थे जिससे कोई शत्रुता दिखानेको तो समर्थ था ही नहीं, परन्तु जिसके सामने निर्दोषतासे उँगली दिखानेमें भी कोई समर्थ न था जिसके समक्ष अनेक मंत्रियोंका समुदाय उसकी कृपाकी याचना करता था, जिसका रूप, कांति और सौंदर्य मनोहारक थे; जिसके अंगमें महान् बल, वीर्य, शक्ति और उम्र पराक्रम उछल रहे थे; जिसके क्रीड़ा करनेके लिये महासुगंधिमय बाग-बगीचे और वन उपवन बने हुए थे जिसके यहाँ मुख्य कुलदीपक पुत्रोंका समुदाय था; जिसकी सेवामें लाखों अनुचर सज्ज होकर खड़े रहा करते थे; वह पुरुष, जहाँ जहाँ जाता था वहाँ वहाँ क्षेम क्षेमके उद्गारोंसे, कंचनके फूल और मोतियोंके थालसे वधाई दिया जाता था जिसके कुंकमवर्णके चरणकमलोंका स्पर्श करनेके लिये इन्द्र जैसे भी तरसते रहते थे; जिसकी आयुधशालामें महायशोमान दिव्य चक्रकी उत्पत्ति हुई थी, जिसके यहाँ साम्राज्यका अखंड दीपक प्रकाशमान था जिसके सिरपर महान् छह खंडकी प्रभुताका तेजस्वी और प्रकाशमान मुकुट सुशोभित था; कहनेका अभिप्राय यह है कि जिसकी साधन-सामग्रीका, जिसके दलका, जिसके नगर, पुर और पट्टनका, जिसके वैभवका, और जिसके विलासका संसारमें किसी भी प्रकारसे न्यूनभाव न था; ऐसा वह श्रीमान् राजराजेश्वर भरत अपने सुंदर आदर्श-भुवनमें वस्त्राभूषणोंसे विभूषित होकर मनोहर सिंहासन पर बैठा था। चारों तरफके द्वार खुले थे; नाना प्रकारकी धूपोंका धूम्र सूक्ष्म रीतिसे फैल रहा था; नाना प्रकारके सुगंधित पदार्थ ज़ोरसे महँक रहे थे; नाना प्रकारके सुन्दर स्वरयुक्त वादित्र यांत्रिक-कलासे स्वर खींच रहे थे; शीतल, मंद और सुगंधित वायुकी लहरें छट रहीं थीं । आभूषण आदि पदार्थोंका निरीक्षण करते हुए वे श्रीमान् राजराजेश्वर भरत उस भुवनमें अनुपम जैसे दिखाई देते थे। • इनके हाथकी एक उँगलीमेंसे अंगूठी निकल पड़ी । भरतका ध्यान उस ओर आकर्षित हुआ और उन्हें अपनी उँगली बिलकुल शोभाहीन मालूम होने लगी। नौ उँगलिये अंगूठियोंद्वारा जिस मनोहरताको धारण करती थीं उस मनोहरतासे रहित इस उँगलीको देखकर इसके ऊपरसे भरतेश्वरको अहुत गंभीर
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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