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________________ भरतेश्वर ] भावनाबोध विचारकी स्फूरणा हुई। किस कारणसे यह उँगली ऐसी लगती है ? यह विचार करनेपर उसे मालूम हुआ कि इसका कारण केवल उँगलीमेंसे अँगूठीका निकल जाना ही है। इस बातको विशेषरूपसे प्रमाणित करनेके लिये उसने दूसरी उँगलीकी अंगूठी भी निकाल ली । जैसे ही दूसरी उँगली से अंगूठी निकाली, वैसे ही वह उँगली भी शोभाहीन दिखाई देने लगी। फिर इस बातको सिद्ध करनेके लिये उसने तीसरी उँगलीमेंसे भी अँगूठी निकाल ली, इससे यह बात और भी प्रमाणित हुई । फिर चौथी उँगलीमेंसे भी अंगूठी निकाल ली, यह भी इसी तरह शोभाहीन दिखाई दी। इस तरह भरतने क्रमसे दसों उँगलियाँ खाली कर डालीं । खाली हो जानेसे ये सबकी सब उँगलियाँ शोभाहीन दिखाई देने लगी। इनके शोभाहीन मालूम होनेसे राजराजेश्वर अन्यत्वभावनामें गद्गद होकर इस तरह बोले: __ अहो हो ! कैसी विचित्रता है कि भूमिसे उत्पन्न हुई वस्तुको कूटकर कुशलतापूर्वक घड़नेसे मुद्रिका बनी; इस मुद्रिकासे मेरी उँगली सुंदर दिखाई दी; इस उँगली से इस मुद्रिकाके निकल पड़नेसे इससे विपरीत ही दृश्य दिखाई दिया। विपरीत दृश्यसे उँगलीकी शोभाहीनता और नंगापन खेदका कारण हो गया। शोभाहीन मालूम होनेका कारण केवल अंगूठीका न होना ही ठहरा न ? यदि अंगूठी होती तो मैं ऐसी अशोभा न देखता। इस मुद्रिकासे मेरी यह उँगली शोभाको प्राप्त हुई। इस उँगलीसे यह हाथ शोभित होता है। इस हाथसे यह शरीर शोभित होता है। फिर इसमें मैं किसकी शोभा मानूँ ! बडे आश्चर्यकी बात है ! मेरी इस मानी जाती हुई मनोहर कांतिको और भी विशेष दीप्त करनेवाले ये मणि माणिक्य आदिके अलंकार और रंगबिरंगे वस्त्र ही सिद्ध हुए; यह कांति मेरी त्वचाकी शोभा सिद्ध हुई; यह त्वचा शरीरकी गुप्तताको ढंककर सुंदरता दिखाती है; अहो हो ! यह कैसी उलटी बात है ! जिस शरीरको मैं अपना मानता हूँ वह शरीर केवल त्वचासे, वह त्वचा कांतिसे, और वह कांतिं वस्त्रालंकारसे शोभित होती है। तो क्या फिर मेरे शरीरकी कुछ शोभा ही नहीं ! क्या यह केवल रुधिर, मांस और हाड़ोंका ही पंजर है ! और इस पंजरको ही मैं सर्वथा अपना मान रहा हूँ। कैसी भूल ! कैसी भ्रमणा। और कैसी विचित्रता है ! मैं केवल परपुद्गलकी शोभासे ही शोभित हो रहा हूँ। किसी और चीजसे रमणीयता धारण करनेवाले शरीरको मैं अपना कैसे मायूँ ! और कदाचित् ऐसा मानकर यदि मैं इसमें ममत्व भाव रक्यूँ तो वह भी केवल दुःखप्रद और वृथा है । इस मेरी आत्माका इस शरीरसे कभी न कभी वियोग होनेवाला है । जब आत्मा दूसरी देहको धारण करने चली जायगी तब इस देहके यहीं पड़े रहनेमें कोई भी शंका नहीं है। यह काया न तो मेरी हुई और न होगी, फिर मैं इसे अपनी मानता हूँ अथवा मानें यह केवल मूर्खता ही है। जिसका कभी न कभी वियोग होनेवाला है और जो केवल अन्यत्वभावको ही धारण किये हुए है उसमें ममत्व क्यों रखना चाहिये ! जब यह मेरी नहीं होती तो फिर क्या मुझे इसका होना उचित है ? नहीं, नहीं । जब यह मेरी नहीं तो मैं भी इसका नहीं, ऐसा विचारूँ, दृढ़ करूँ और आचरण करूँ यही विवेक-बुद्धिका अर्थ है। यह समस्त सृष्टि अनंत वस्तुओंसे और अनंत पदार्थोसे भरी हुई है, उन सब पदार्थोकी अपेक्षा जिसके समान मुझे एक भी वस्तु प्रिय नहीं वह वस्तु भी जब मेरी न हुई, तो फिर दूसरी कोई वस्तु मेरी कैसे हो
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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