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________________ अन्यत्वभावना] भावनाबोध घिस रही हैं । अब हमने कंकणोंको समूहको अपने हाथमें नहीं रक्खा इसलिये कोलाहल नहीं होता। रानियोंके इतने वचनोंको सुनते ही नमिराजके रोमरोममें एकत्व उदित हुआ-एकत्व व्याप्त हो गया, और उनका ममत्व दूर हो गया। सचमुच ! बहुतोंके मिलनेसे बहुत उपाधि होती है । देखो ! अब इस एक कंकणसे लेशमात्र भी खलभलाहट नहीं होता। कंकणोंके समूहसे सिरको घुमा देनेवाला खलभलाहट होता था। अहो चेतन ! तू मान कि तेरी सिद्धि एकत्वमें ही है । अधिक मिलनेसे अधिक ही उपाधि बढ़ती है । संसारमें अनन्त आत्माओंके संबन्धसे तुझे उपाधि भोगनेकी क्या आवश्यकता है ! उसका त्याग कर और एकत्वमें प्रवेश कर । देख ! अब यह एक कंकण खलभलाहटके विना कैसी उत्तम शान्तिमें रम रहा है । जब अनेक थे तब यह कैसी अशांतिका भोग कर रहा था इसी तरह तू भी कंकणरूप है । उस कंकणकी तरह तू भी जबतक स्नेही कुटुंबीरूपी कंकण-समुदायमें पड़ा रहेगा तबतक भवरूपी खलभलाहटका सेवन करना पड़ेगा। और यदि इस कंकणकी वर्तमान स्थितिकी तरह एकत्वकी आराधना करेगा तो सिद्धगतिरूपी महापवित्र शांतिको प्राप्त करेगा। इस प्रकार वैराग्यके उत्तरोत्तर प्रवेशमें ही उन नमिराजको पूर्वभवका स्मरण हो आया। वे प्रव्रज्या धारण करनेका निश्चय करके सो गये । प्रभातमें मंगलसूचक बाजों की ध्वनि हुई। नमिराज दाहज्वरसे मुक्त हुए। एकत्वका परिपूर्ण सेवन करनेवाले श्रीमान् नमिराज ऋषिको अभिवंदन हो। शार्दूलविक्रीड़ित राणी सर्व मळी सुचंदन घसी, ने चर्चवामा हती, बूझ्यो त्यां ककळाट कंकणतणो, श्रोती नमिभूपति. संवादे पण इन्द्रधी दृढ़ रह्यो, एकत्व साधु कयु, एवा ए मिथिलेशनुं चरित आ, सम्पूर्ण अत्रे थयुं ॥१॥ विशेषार्थः-सब रानियाँ मिलकर चंदन घिसकर लेप करनेमें लगी हुई थीं। उस समय कंकणोंका कोलाहल सुनकर नमिराजको बोध प्राप्त हुआ। वे इंन्द्रके साथ संवादमें भी अचल रहे; और उन्होंने एकत्वको सिद्ध किया । ऐसे इस मुक्तिसाधक महावैरागी मिथिलेशका चरित्र भावनाबोध ग्रंथके तृतीय चित्रमें पूर्ण हुआ। चतुर्थ चित्र अन्यत्वभावना शार्दूलविक्रीवित . ना मारा तन रूप कांति युवती, ना पुत्र के भ्रात ना, ना मारां भृत स्नेहियो स्वजन के, ना गोत्र के ज्ञात ना; ना मारां धन धाम यौवन धरा, ए मोह अज्ञात्वना, रे। रे! जीव विचार एमज सदा, अन्यत्वदा भावना ॥२॥ विशेषार्थः-यह शरीर मेरा नहीं, यह रूप मेरा नहीं, यह कांति मेरी नहीं, यह स्त्री मेरी नहीं, यह पुत्र मेरा नहीं, ये भाई मेरे नहीं, ये दास मेरे नहीं, ये स्नेही मेरे नहीं, ये संबंधी मेरे नहीं, यह गोत्र मेरा नहीं, यह ज्ञाति मेरी नहीं, यह लक्ष्मी मेरी नहीं, यह महल मेरा नहीं, यह यौवन मेरा नहीं, और यह भूमि मेरी नहीं, यह सब मोह केवल अहानपनेका है। हे जीव! सिद्धगति पाने के लिये अन्यत्वका उपदेश देनेवाली-अन्यत्वभावनाका विचार कर ! विचार कर !
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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