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________________ १०४ भीमद् राजचन्द्र [नामराजा विप्रः-परन्तु हे राजन् । अपनी नगरीका सघन किला बनवाकर, राजद्वार, अट्टालिकायें, फाटक, और मोहल्ले बनवाकर, खाई और शतघ्नी यंत्र बनवाकर बादमें जाना । नमिराजः-(हेतु कारणसे प्रेरित) हे विप्र ! मैं श्रद्धारूपी नगरी करके, सम्वर रूपी मोहल्ले करके क्षमारूपी शुभ किला बनाऊँगा; शुभ मनोयोग रूपी अट्टालिका बनाऊँगा; वचनयोगरूपी खाई खुदाऊँगा; काया योगरूपी शतघ्नी करूँगा, पराक्रमरूपी धनुष चढाऊँगा; ईर्यासमितिरूपी डोरी लगाऊँगा; धीरजरूपी कमान लगाऊँगा; धैर्यको मूठ बनाऊँगा; सत्यरूपी चापसे धनुषको बाँधूगा; तपरूपी बाण लगाऊँगा; और कर्मरूपी वैरीकी सेनाका भेदन करूँगा; लौकिक संग्रामकी मुझे रुचि नहीं है, मैं केवल ऐसे भाव-संग्रामको चाहता है। विप्रः-(हेतु कारणसे प्रेरित ) हे राजन् ! शिखरबंद ऊँचे महल बनवाकर, मणि कांचनके झरोखे आदि लगवाकर, तालाबमें क्रीड़ा करनेके मनोहर स्थान बनवाकर फिर जाना । नमिराजः-( हेतु कारणसे प्रेरित ) तूने जिस जिस प्रकारके महल गिनाये वे महल मुझे अस्थिर और अशाश्वत जान पड़ते हैं । वे मार्गमें बनी हुई सरायके समान मालूम होते हैं, अतएव जहाँ स्वधाम है, जहाँ शाश्वतता है और जहाँ स्थिरता है मैं वहीं निवास करना चाहता हूँ। विप्रः- ( हेतु कारणसे प्रेरित ) हे क्षत्रियशिरोमाणि! अनेक प्रकारके चोरोंके उपद्रवोंको दूरकर इसके द्वारा नगरीका कल्याण करके जाना। नमिराजः-हे विप्र ! अज्ञानी मनुष्य अनेक बार मिथ्या दंड देते हैं। चोरीके नहीं करनेवाले शरीर आदि पुद्गल लोकमें बाँधे जाते हैं; तथा चोरीके करनेवाले इन्द्रिय-विकारको कोई नहीं बाँध सकता फिर ऐसा करनेकी क्या आवश्यकता है ! विप्रः-हे क्षत्रिय ! जो राजा तेरी आज्ञाका पालन नहीं करते और जो नराधिप स्वतंत्रतासे आचरण करते हैं त, उन्हें अपने वशमें करके पीछे जाना । नमिराजः-( हेतु कारणसे प्रेरित ) दसलाख सुभटोंको संग्राममें जीतना दुर्लभ गिना जाता है, फिर भी ऐसी विजय करनेवाले पुरुष अनेक मिल सकते हैं, परन्तु अपनी आत्माको जीतनेवाले एकका मिलना भी अनंत दुर्लभ हैं । दसलाख सुभटोंसे विजय पानेवालोंकी अपेक्षा अपनी स्वात्माको जीतनेवाला पुरुष परमोत्कृष्ट है । आत्माके साथ युद्ध करना उचित है । बाह्य युद्धका क्या प्रयोजन है ! ज्ञानरूपी आत्मासे क्रोध आदि युक्त आत्माको जीतनेवाला स्तुतिका पात्र है । पाँच इन्द्रियोंको, क्रोधको, मानको, मायाको और लोभको जीतना दुष्कर है । जिसने मनोयोग आदिको जीत लिया उसने सब कुछ जीत लिया। विप्रः-( हेतु कारणसे प्रेरित ) हे क्षत्रिय ! समर्थ यज्ञोंको करके, श्रमण, तपस्वी, ब्राह्मण आदिको भोजन देकर, सुवर्ण आदिका दान देकर, मनोज भोगोंको भोगकर, तू फिर पीछेसे जाना। नमिराजः- ( हेतु कारणसे प्रेरित ) हर महीने यदि दस लाख गायोंका दान दे फिर भी जो दस लाख गायोंके दानकी अपेक्षा संयम ग्रहण करके संयमकी आराधना करता है वह उसकी अपेक्षा विशेष मंगलको प्राप्त करता है।
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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