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________________ नमिराजर्षि ] भावनाबोध १०५ विप्रः-निर्वाह करनेके लिये भिक्षा माँगनेके कारण सुशील प्रव्रज्यामें असह्य परिश्रम सहना पड़ता है, इस कारण उस प्रव्रज्याको त्यागकर अन्य प्रव्रज्या धारण करने की रुचि हो जाती है। अतएव उस उपाधिको दूर करनेके लिये तू गृहस्थाश्रममें रहकर ही पौषध आदि व्रतोंमें तत्पर रह । हे मनुष्यके अधिपति ! मैं ठीक कहता हूँ। नमिराजः- ( हेतु कारणसे प्रेरित ) हे विप्र ! बाल अविवेकी चाहे जितना भी उग्र तप करे. परन्तु वह सम्यक् श्रुतधर्म तथा चारित्रधर्मके बराबर नहीं होता । एकाध कला सोलह कलाओंके समान कैसे मानी जा सकती है ! विप्रः-अहो क्षत्रिय ! सुवर्ण, मणि, मुक्ताफल, वस्त्रालंकार और अश्व आदिकी वृद्धि करके फिर जाना। नमिराजः-(हेतु कारणसे प्रेरित ) कदाचित् मेरु पर्वतके समान सोने चाँदीके असंख्यातों पर्वत हो जाँय उनसे भी लोभी मनुष्यकी तृष्णा नहीं बुझती, उसे किंचित्मात्र भी संतोष नहीं होता। तृष्णा आकाशके समान अनंत है । यदि धन, सुवर्ण, पशु इत्यादिसे सकल लोक भर जाय उन सबसे भी एक लोभी मनुष्यकी तृष्णा दूर नहीं हो सकती । लोभकी ऐसी कनिष्ठता है ! अतएव विवेकी पुरुष संतोषनिवृत्तिरूपी तपका आचरण करते हैं। विप्रः-( हेतु कारणसे प्रेरित ) हे क्षत्रिय ! मुझे अत्यन्त आश्चर्य होता है कि तू विद्यमान भोगोंको छोड़ रहा है ! बादमें तू अविद्यमान काम-भोगके संकल्प-विकल्पोंके कारणसे खेदखिन्न होगा। अतएव इस मुनिपनेकी सब उपाधिको छोड़ दे । नमिराजः-(हेतु कारणसे प्रेरित) काम-भोग शल्यके समान हैं; काम-भोग विषके समान हैं; काम-भोग सर्पके तुल्य हैं; इनकी वाँछा करनेसे जीव नरक आदि अधोगतिमें जाता है। इसी तरह क्रोध और मानके कारण दुर्गति होती है। मायासे सद्गतिका विनाश होता है; लोभसे इस लोक और परलोकका भय रहता है, इसलिये हे विप्र ! इनका तू मुझे उपदेश न कर । मेरा हृदय कभी भी चलायमान होनेवाला नहीं, और इस मिथ्या मोहिनीमें अभिरुचि रखनेवाला नहीं। जानबूझकर विष कौन पियेगा ! जानबूझकर दीपक लेकर कुएमें कौन गिरेगा ! जानबूझकर विभ्रममें कौन पड़ेगा ! मैं अपने अमृतके समान वैराग्यके मधुर रसको अप्रिय करके इस ज़हरको प्रिय करनेके लिये मिथिलामें आनेवाला नहीं। महर्षि नमिराजकी सुदृढ़ता देखकर शकेन्द्रको परमानंद हुआ। बादमें ब्राह्मणके रूपको छोड़कर उसने इन्द्रपनेकी विक्रिया धारण की। फिर वह वन्दन करके मधुर वचनोंसे राजर्षीश्वरकी स्तुति करने लगा कि हे महायशस्वि ! बड़ा आश्चर्य है कि तूने क्रोध जीत लिया। आश्चर्य है कि तूने अहंकारको पराजित किया। आश्चर्य है कि तूने मायाको दूर किया.। आश्चर्य है कि तूने लोभको वशमें किया । आश्चर्यकारी है तेरा सरलपना, आश्चर्यकारी है तेरा निर्ममत्व, आश्चर्यकारी है तेरी प्रधान क्षमा और आश्चर्यकारी है तेरी निलोभिता । हे पूज्य | तू इस भवमें उत्तम है. और परभवमें उत्तम होगा। तू कर्मरहित
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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