SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 187
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ एकत्वमाक्ना] .. भावनाबोध १०३ तृतीय चित्र एकत्वभावना उपजाति शरीरमें व्याधि प्रत्यक्ष थाय, ते कोई अन्ये लई ना शकाय; ए भोगवे एक स्व आत्मा पोते, एकत्व एथी नय सुज्ञ गोते। विशेषार्थः-शरीरमें प्रत्यक्ष दिखाई देनेवाले रोग आदि जो उपद्रव होते हैं उन्हें स्नेही, कुटुम्बी, स्त्री अथवा पुत्र कोई भी नहीं ले सकते । उन्हें केवल एक अपनी आत्मा ही स्वयं भोगती है। इसमें कोई भी भागीदार नहीं होता । तथा पाप, पुण्य आदि सब विपाकोंको अपनी आत्मा ही भोगती है। यह अकेली आती है और अकेली जाती है। इस तरह सिद्ध करके विवेकको भली भाँति जाननेवाले पुरुष एकत्वकी निरंतर खोज करते हैं। नमिराजर्षि महापुरुषके उस न्यायको अचल करनेवाले नमिराजर्षि और शक्रेन्द्रके वैराग्यके उपदेशक संवादको यहाँ देते हैं । नमिराजर्षि मिथिला नगरीके राजेश्वर थे । स्त्री, पुत्र आदिसे विशेष दःखको प्राप्त न करने पर भी एकत्वके स्वरूपको परिपूर्णरूपसे पहिचानने में राजेश्वरने किंचित् भी विभ्रम नहीं किया । शक्रेन्द्र सबसे पहले जहाँ नमिराजर्षि निवृत्तिमें विराजते थे, वहाँ विप्रके रूपमें आकर परीक्षाके लिये अपने व्याख्यानको शुरु करता है: विप्र :-हे राजन् ! मिथिला नगरीमें आज प्रबल कोलाहल व्याप्त हो रहा है । हृदय और मनको उद्वेग करनेवाले विलापके शब्दोंसे राजमंदिर और सब घर छाये हुए हैं। केवल तेरी एक दीक्षा ही इन सब दुःखोंका कारण है । अपने द्वारा दूसरेकी आत्माको जो दुःख पहुँचता है उस दुःखको संसारके परिभ्रमणका कारण मानकर तू वहाँ जा, भोला मत बन । नमिराजः-(गौरव भरे वचनोंसे) हे विप्र ! जो तू कहता है वह केवल अज्ञानरूप है। मिथिला नगरीमें एक बगीचा था, उसके बीचमें एक वृक्ष था, वह शीतल छायासे रमणीय था, वह पत्र, पुष्प और फलोंसे युक्त था और वह नाना प्रकारके पक्षियोंको लाभ देता था। इस वृक्षके वायुद्वारा कंपित होनेसे वृक्षमें रहनेवाले पक्षी दुःखात और शरणरहित होनेसे आक्रन्दन कर रहे हैं । ये पक्षी स्वयं वृक्षके लिये विलाप नहीं कर रहे किन्तु वे अपने सुखके नष्ट होनेके कारण ही शोकसे पीड़ित हो रहे हैं। विप्र:-परन्तु यह देख ! अग्नि और वायुके मिश्रणसे तेरा नगर, तेरा अंतःपुर, और मन्दिर जल रहे हैं, इसलिये वहाँ जा और इस अमिको शांत कर । नमिराजः-हे विप्र ! मिथिला नगरीके उन अंतःपुर और उन मंदिरोंके जलनेसे मेरा कुछ भी नहीं जल रहा । मैं उसी प्रकारकी प्रवृत्ति करता हूँ जिससे मुझे सुख हो । इन मंदिर आदिमें मेरा अल्प मात्र भी राग नहीं । मैंने पुत्र, स्त्री आदिके व्यवहारको छोड़ दिया है । मुझे इनमेंसे कुछ भी प्रिय नहीं, और कुछ भी अप्रिय नहीं ।
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy