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________________ तलाववोध] मोक्षमाला. किया है वह सनिक्षेप शैलीसे नहीं, अर्थात् कभी इसमें एकांत पक्षका ग्रहण किया जा सकता है । और फिर मैं कोई स्याद्वाद-शैलीका यथार्थ जानकर नहीं, मंदबुद्धिसे लेशमात्र जानता हूँ । नास्ति अस्ति नयको भी आपने यथार्थ शैलीपूर्वक नहीं घटाया । इसलिये मैं तर्कसे जो उत्तर दे सकता हूँ उसे आप सुनें । उत्पत्तिमें " नास्ति" की जो योजना की है वह इस तरह यथार्थ हो सकती है कि "जीव अनादि अनंत है"। व्ययमें " नास्ति" की जो योजना की है वह इस तरह यथार्थ हो सकती है कि " इसका किसी कालमें नाश नहीं होता"। ध्रुवता " नास्ति" की जो योजना की है वह इस तरह यथार्थ हो सकती है कि " एक देहमें वह सदैवके लिये रहनेवाला नहीं"। ९० तत्त्वावषोध (९) उत्पत्तिमें " अस्ति" की जो योजना की है वह इस तरह यथार्थ हो सकती है कि जीवको मोक्ष होनेतक एक देहमेंसे च्युत होकर वह दूसरी देहमें उत्पन्न होता है"। ___ व्ययमें " अस्ति" की जो योजना की है वह इस तरह यथार्थ हो सकती है कि '. वह जिस देहमेंसे आया वहाँसे व्यय प्राप्त हुआ, अथवा प्रतिक्षण इसकी आत्मिक ऋद्धि विषय आदि मरणसे रुकी हुई है, इस प्रकार व्यय घटा सकते हैं। ध्रुवतामें " अस्ति" की जो योजना की है वह इस तरह यथार्थ हो सकती है कि " द्रव्यकी अपेक्षासे जीव किसी कालमें नाश नहीं होता, वह त्रिकाल सिद्ध है।" अब इससे अर्थात् इन अपेक्षाओंको ध्यानमें रखनेसे मुझे आशा है कि दिये हुए दोष दूर हो जायेंगे। १ जीव व्ययरूपसे नहीं है इसलिये ध्रौव्य सिद्ध हुआ-यह पहला दोष दूर हुआ। २ उत्पत्ति, व्यय और ध्रुवता ये भिन्न भिन्न न्यायसे सिद्ध हैं; अर्थात् जीवका सत्यत्व सिद्ध हुआ-यह दूसरे दोषका परिहार हुआ। ३ जीवकी सत्य स्वरूपसे ध्रुवता सिद्ध हुई इससे व्यय नष्ट हुआ-यह तीसरे दोषका परिहार हुआ। ४ द्रव्यभावसे जीवकी उत्पत्ति असिद्ध हुई—यह चौथा दोष दूर हुआ। ५ जीव अनादि सिद्ध हुआ इसलिये उत्पत्तिसंबंधी पाँचवाँ दोष दूर हुआ। ६ उत्पत्ति असिद्ध हुई इसलिये कर्तासंबंधी छहे दोषका परिहार हुआ। ७ ध्रुवताके साथ व्यय लेनेसे बाधा नहीं आती, इसलिये चार्वाक-मिश्र-वचन नामक सातवें दोषका निराकरण हुआ। ८ उत्पत्ति और व्यय पृथक् पृथक् देहमें सिद्ध हुए इससे केवल चार्वाक सिद्धांत नामके आठवें दोषका परिहार हुआ।
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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