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________________ .............. [ तत्त्वावबोध श्रीमद् राजचन्द्र ..... ८८ तत्वावबोध उत्तरमें मैने कहा कि इस कालमें तीन महा ज्ञानोंका भारतसे विच्छेद हो गया है। ऐसा होनेपर मैं कोई सर्वज्ञ अथवा महा प्रज्ञावान् नहीं हूँ तो भी मेरा जितना सामान्य लक्ष पहुँच सकेगा उतना पहुँचाकर कुछ समाधान कर सकूँगा, यह मुझे संभव प्रतीत होता है । तब उन्होंने कहा कि यदि यह संभव हो तो यह त्रिपदी जीवपर " नास्ति" और " अस्ति" विचारसे घटाइये । वह इस तरह कि जीव क्या उत्पत्तिरूप है ! तो कि नहीं । जीव क्या व्ययरूप है ! तो कि नहीं। जीव क्या ध्रौव्यरूप है ! तो कि नहीं, इस तरह एक बार घटाइये और दूसरी बार जीव क्या उत्पत्तिरूप है.? तो कि हाँ। जीव क्या व्ययरूप है ! तो कि हाँ । जीव क्या ध्रौव्यरूप है ? तो कि हाँ, ऐसे घटाइये । ये विचार समस्त मंडलमें एकत्र करके योजित किये हैं। इसे यदि यथार्थ नहीं कह सकते तो अनेक प्रकारके दूषण आ सकते हैं । यदि वस्तु व्ययरूप हो तो वह ध्रुवरूप नहीं हो सकती-यह पहली शंका है । यदि उत्पत्ति, व्यय और ध्रुवता नहीं तो जीवको किन प्रमाणोंसे सिद्ध करोगे-यह दूसरी शंका है । व्यय और ध्रुवताका परस्पर विरोधाभास है-यह तीसरी शंका है । जीव केवल ध्रुव है तो उत्पत्तिमें अस्ति कहना असत्य हो जायगा-यह चौथा विरोध । उत्पन्न जीवको ध्रुवरूप कहो तो उसे उत्पन्न किसने किया—यह पाँचवीं शंका और विरोध । इससे उसका अनादिपना जाता रहता हैयह छठी शंका है । केवल ध्रुव व्ययरूप है ऐसा कहो तो यह चार्वाक-मिश्रवचन हुआ-यह सातवाँ दोष है। उत्पत्ति और व्ययरूप कहोगे तो केवल चार्वाकका सिद्धांत कहा जायेगा—यह आठवाँ दोष है। उत्पत्तिका अभाव, व्ययका अभाव और ध्रुवताका अभाव कहकर फिर तीनोंका अस्तित्व कहना-ये छह दोष । इस तरह मिलाकर सब चौदह दोष होते हैं। केवल ध्रुवता निकाल देनेपर तीर्थकरोंके वचन खंडित हो जाते हैं-यह पन्द्रहवाँ दोष है। उत्पत्ति ध्रुवता लेनेपर कर्त्ताकी सिद्धि होती है इससे सर्वज्ञके वचन खंडित हो जाते हैं—यह सोलहवाँ दोष है। उत्पत्ति व्ययरूपसे पाप पुण्य आदिका अभाव मान लें तो धर्माधर्म सबका लोप हो जाता है-यह सत्रहवाँ दोष है । उत्पत्ति व्यय और सामान्य स्थितिसे ( केवल अचल नहीं ) त्रिगुणात्मक माया सिद्ध होती है-यह अठारहवाँ दोष है। ८९ तत्त्वावबोध (८) इन कथनोंके सिद्ध न होनेपर इतने दोष आते हैं। एक जैन मुनिने मुझे और मेरे मित्र-मंडलसे ऐसा कहा था कि जैन सप्तभंगीनय अपूर्व है और इससे सब पदार्थ सिद्ध होते हैं । इसमें नास्ति अस्तिका अगम्य भेद सन्निविष्ट है । यह कथन सुनकर हम सब घर आये, फिर योजना करते करते इस लब्धिवाक्यको जीवपर घटाया । मैं समझता हूँ कि इस प्रकार नास्ति अस्तिके दोनों भाव जीवपर नहीं घट सकते । इससे लब्धिवाक्य भी क्लेशरूप हो जावेंगे। फिर भी इस ओर मेरी कोई तिरस्कारकी इशि नहीं है। इसके उत्तरमें मैने कहा कि आपने जो नास्ति और अस्ति नयोंको जीवपर घटानेका विचार
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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