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________________ - - - -- - - श्रीमद् राजचन्द्र [तस्थावबोध १४ शंकाका परस्पर विरोधाभास निकल जानेसे चौदह तकक सब दोष दूर हुए। १५ अनादि अनंतता सिद्ध होनेपर स्याद्वादका वचन सिद्ध हुआ यह पन्दरहवें दोषका निराकरण हुआ । १६ कर्ताके न सिद्ध होनेपर जिन-वचनकी सत्यता सिद्ध हुई इससे सोलहवें 'दोषका निराकरण हुआ। १७ धर्माधर्म, देह आदिके पुनरावर्तन सिद्ध होनेसे सत्रहवें दोषका परिहार हुआ। १८ ये सब बातें सिद्ध होनेपर त्रिगुणात्मक मायाके असिद्ध होनेसे अठारहवाँ दोष दूर हुआ । ९१ तत्वावयोध मुझे आशा है कि आपके द्वारा विचारकी हुई योजनाका इससे समाधान हुआ होगा। यह कुछ यथार्थ शैली नहीं घटाई, तो भी इसमें कुछ न कुछ विनोद अवश्य मिल सकता है । इसके ऊपर विशेष विवेचन करनेके लिए बहुत समयकी आवश्यकता है इसलिये अधिक नहीं कहता । परन्तु एक दो संक्षिप्त बात आपसे कहनी हैं, तो यदि यह समाधान ठीक ठीक हुआ हो तो उनको कहूँ। बादमें उनकी ओरसे संतोषजनक उत्तर मिला, और उन्होंने कहा कि एक दो बात जो आपको कहनी हों उन्हें सहर्ष कहो। बादमें मैंने अपनी बातको संजीवित करके लब्धिके संबंधकी बात कही। यदि आप इस लब्धिके संबंधमें शंका करें अथवा इसे क्लेशरूप कहें तो इन वचनोंके प्रति अन्याय होता है । इसमें अत्यन्त उज्ज्वल आत्मिकशक्ति, गुरुगम्यता, और वैराग्यकी आवश्यकता है । जबतक यह नहीं तबतक लब्धिके विषयमें शंका रहना निश्चित है । परन्तु मुझे आशा है कि इस समय इस संबंधमें दो शब्द कहने निरर्थक नहीं होंगे। वे ये हैं कि जैसे इस योजनाको नास्ति अस्तिपर घटाकर देखी वैसे ही इसमें भी बहुत सूक्ष्म विचार करनेके हैं । देहमें देहकी पृथक् पृथक् उत्पत्ति, च्यवन, विश्राम, गर्भाधान, पर्याप्ति, इन्द्रिय, सत्ता, ज्ञान, संज्ञा, आयुष्य, विषय इत्यादि अनेक कर्मप्रकृतियोंको प्रत्येक भेदसे लेनेपर जो विचार इस लब्धिसे निकलते हैं वे अपूर्व हैं । जहाँतक जिसका ध्यान पहुँचता है वहाँतक सब विचार करते हैं, परन्तु द्रव्यार्थिक भावार्थिक नयसे समस्त सृष्टिका ज्ञान इन तीन शब्दोंमें आ जाता है, उसका विचार कोई ही करते हैं; यह जब सद्गुरुके मुखकी पवित्र लब्धिरूपसे प्राप्त हो सकता है तो फिर इससे द्वादशांगी ज्ञान क्यों नहीं हो सकता? जगत्के कहते ही मनुष्यको एक घर, एक वास, एक गाँव, एक शहर, एक देश, एक खंड, एक पृथिवी यह सब छोड़कर असंख्यात द्वीप समुद्रादिसे भरपूर वस्तुओंका ज्ञान कैसे हो जाता है ! इसका कारण केवल इतना ही है कि वह इस शब्दकी व्यापकताको समझे हुआ है, अथवा इसका लक्ष इसकी अमुक व्यापकतातक पहुँचा हुआ है, जिससे जगत् शब्दके कहते ही वह इतने बड़े मर्मको समझ जाता है । इसी तरह ऋजु और सरल सत्पात्र शिष्य निर्घन्थ गुरुसे इन तीन शब्दोंकी गम्यता प्राप्तकर द्वादशांगी ज्ञान प्राप्त करते थे। इस प्रकार वह लन्धि अल्पज्ञता होनेपर भी विवेकसे देखनेपर केशरूप नहीं है।
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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