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________________ सनत्कुमार] मोक्षमाला ४ इन्द्रियनिरीक्षण-ब्रह्मचारी साधुओंको त्रियोंके अंगोपांग ध्यानपूर्वक अथवा दृष्टि गड़ागड़ाकर न देखने चाहिये । इनके किसी अंगपर दृष्टि एकाग्र होनेसे विकारकी उत्पत्ति होती है। ५ कुड्यांतर-भीत, कनात या टाटका अंतरपट रखकर जहाँ स्त्री-पुरुष मैथुन करते हों वहाँ ब्रह्मचारीको नहीं रहना चाहिये, क्योंकि शब्द, चेष्टा आदि विकारके कारण हैं। ६ पूर्वक्रीड़ा-स्वयं ब्रह्मचारी साधुने गृहस्थावासमें किसी भी प्रकारकी शृंगारपूर्ण विषयक्रीडाकी हो तो उसकी स्मृति न करनी चाहिये । ऐसा करनेसे ब्रह्मचर्य भंग होता है । ७ प्रणीत–दूध, दही, घृत आदि मधुर और सच्चिकण पदार्थोका बहुधा आहार न करना चाहिये । इससे वीर्यकी वृद्धि और उन्माद पैदा होते हैं और उनसे कामकी उत्पत्ति होती है । इसलिये ब्रह्मचारियोंको इनका सेवन नहीं करना चाहिये। ८ अतिमात्राहार–पेट भरकर मात्रासे अधिक भोजन नहीं करना चाहिये । तथा जिससे अतिमात्राकी उत्पत्ति हो ऐसा नहीं करना चाहिये । इससे भी विकार बढ़ता है। ९ विभूषण-ब्रह्मचारीको स्नान, विलेपन करना, तथा पुष्प आदिका प्रहण नहीं करना चाहिये । इससे ब्रह्मचर्यकी हानि होती है। इस प्रकार विशुद्ध ब्रह्मचर्यके लिये भगवान्ने नौ बाड़ें कही हैं । बहुत करके ये तुम्हारे सुननेमें आई होंगी। परन्तु गृहस्थावासमें अमुक अमुक दिन ब्रह्मचर्य धारण करने में अभ्यासियोंके लक्षमें रहनेके लिये यहाँ कुछ समझाकर कहा है। ७० सनत्कुमार चक्रवर्तीके वैभवमें क्या कमी हो सकती है ! सनत्कुमार चक्रवर्ती था । उसका वर्ण और रूप अत्युत्तम था । एक समय सुधर्माकी सभामें उसके रूपकी प्रशंसा हुई । किन्हीं दो देवोंको यह बात अच्छी न लगी। बादमें वे दोनों देव शंका-निवारण करनेके लिये विपके रूपमें सनत्कुमारके अंत:पुरमें गये । सनत्कुमारके शरीरपर उस समय उबटन लगा हुआ था । उसके अंगमर्दन आदि पदार्थीका सब जगह विलेपन हो रहा था । वह एक छोटासा पँचा पहने हुआ था और वह स्नान-मज्जन करनेको बैठा था। विपके रूपमें आये हुए देवताओंको उसका मनोहर मुख, कंचन वर्णकी काया. और चन्द्र जैसी कांति देखकर बहुत आनन्द हुआ और उन्होंने सिर हिलाया। यह देखकर चक्रवर्तीने पूँछा, तुमने सिर क्यों हिलाया ! देवोंने कहा हम आपके रूप और वर्णको देखनेके लिये बहुत अभिलाषी थे। हमने जगह जगह आपके रूप और वर्णकी प्रशंसा सुनी थी । आज हमने उसे प्रत्यक्ष देखा, जिससे हमें पूर्ण आनन्द हुआ। सिर हिलानेका कारण यह है कि जैसा लोकमें कहा जाता है वैसा ही आपका रूप है। इससे अधिक ही है परन्तु कम नहीं। सनत्कुमार अपने रूप और वर्णकी स्तति सुनकर प्रभुत्वमें आकर बोला कि तुमने इस समय मेरा रूप देखा सो ठीक, परन्तु जिस समय मैं राजसभामें वस्त्रालंकार धारणकर सम्पूर्णरूपसे सज्ज होकर सिंहासनपर बैठता हूँ उस समय मेरा रूप और वर्ण और भी देखने योग्य होता है । अभी तो मैं शरीरमें उबटन लगाकर बैठा हूँ । यदि उस
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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