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________________ श्रीमद् राजचन्द्र [सनत्कुमार समय तुम मेरा रूप और वर्ण देखोगे तो अद्भुत चमत्कोर पाओगे और चकित हो जाओगे। देवोंने कहा, तो फिर हम राजसभामें आवेंगे । ऐसा कहकर वे वहाँसे चले गये । उसके बाद सनत्कुमारने उत्तम वस्त्रालंकार धारण किये । अनेक उपचारोंसे जिससे अपनी काया विशेष आश्चर्य उत्पन्न करे उस तरह सज्ज होकर वह राजसभामें आकर सिंहासनपर बैठा । दोनों ओर समर्थ मंत्री, सुभट, विद्वान् और अन्य सभासद लोग अपने अपने योग्य आसनपर बैठे थे । राजेश्वर चमर छत्रसे दुलाया जाता दुआ और क्षेम क्षेमसे बधाई दिया जाता हुआ विशेष शोभित हो रहा था । वहाँ वे देवता विपके रूप में आये । अद्भुत रूप-वर्णसे आनन्द पानेके बदले मानों उन्हें खेद हुआ है, ऐसे उन्होंने अपने सिरको हिलाया । चक्रवतीने पूँछा, अहो ब्राह्मणो ! पहले समयकी अपेक्षा इस समय तुमने दूसरी तरह सिर हिलाया, इसका क्या कारण है, वह मुझे कहो । अवधिज्ञानके अनुसार विनोंने कहा कि हे महाराज ! उस रूपमें और इस रूपमें जमीन आस्मानका फेर हो गया है । चक्रवर्तीने उन्हें इस बातको स्पष्ट समझानेको कहा । ब्राह्मणोंने कहा, अधिराज ! आपकी काया पहले अमृततुल्य थी, इस समय जहरके तुल्य है । जब आपका अंग अमृततुल्य था तब आनन्द हुआ, और इस समय ज़हरके तुल्य है इसलिये खेद हुआ । जो हम कहते हैं यदि उस बातको सिद्ध करना हो तो आप तांबूलको थूकें, अभी उसपर मक्खियाँ बैठेंगी और वे परलोक पहुँच जावेंगी। ७१ सनत्कुमार (२) . सनत्कुमारने इसकी परीक्षा ली तो यह बात सत्य निकली । पूर्वकर्मके पापके भागमें इस कायाके मदकी मिलावट होनेसे इस चक्रवर्तीकी काया विषमय हो गई थी। विनाशीक और अशुचिमय कायाके ऐसे प्रपंचको देखकर सनत्कुमारके अंतःकरणमें वैराग्य उत्पन्न हुआ। यह संसार केवल छोड़ने योग्य है । और ठीक ऐसी ही अपवित्रता स्त्री, पुत्र, मित्र आदिके शरीरमें है । यह सब मोह, मान करने योग्य नहीं, ऐसा विचारकर वह छह खंडकी प्रभुता त्यागकर चल निकला । जिस समय वह साधुरूपमें विचरता था उस समय उसको कोई महारोग हो गया। उसके सत्यत्वकी परीक्षा लेनेको एक देव वहाँ वैयके रूपमें आया और उसने साधुसे कहा, में बहुत कुशल राजवैध हूँ। आपकी काया रोगका भोग बनी हुई है । यदि इच्छा हो तो तत्काल ही मैं इस रोगका निवारण कर हूँ। साधुने कहा हे वैध ! कर्मरूपी रोग महा उन्मत्त है, इस रोगको दूर करनेकी यदि तुम्हारी सामर्थ्य हो तो खुशीसे मेरे इस रोगको दूर करो। यदि इस रोगको दूर करनेकी सामर्थ्य न हो तो यह रोग भले ही रहो । देवताने कहा, यह रोग दूर करनेकी मुझमें सामर्थ्य नहीं है । साधुने अपनी लब्धिकी परिपूर्ण प्रबलतासे थूकवाली अंगुली करके उसे रोगपर फेरी कि तत्काल ही उस रोगका नाश हो गया, और काया जैसी थी वैसी हो गई। उस समय देवने अपने स्वरूपको प्रगट किया, और वह धन्यवाद देकर और वंदन करके अपने स्थानको चला गया। कोढके समान सदैव खून पीपसे खदबदाते हुए महारोगकी उत्पत्ति जिस कायामें है, पलभरमें विनस जानेका जिसका स्वभाव है, जिसके प्रत्येक रोममें पौने दो दो रोग होनेसें जो रोगका भंडार है, .
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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