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________________ ६८ श्रीमद् राजवन्द्र [ब्रह्मचर्यकी नौ बारे मनसे इन्द्रियोंकी लोलुपता है । भोजन, वादित्र, सुगंधी, स्त्रीका निरीक्षण, सुंदर विलेपन यह सब मन ही माँगता है । इस मोहिनीके कारण यह धर्मकी याद भी नहीं आने देता । याद आनेके पीछे सावधान नहीं होने देता । सावधान होनेके बाद पतित करनेमें प्रवृत्त होता है । इसमें जब सफल नहीं होता तब सावधानीमें कुछ न्यूनता पहुँचाता है । जो इस न्यूनताको भी न प्राप्त होकर अडग रहकर उस मनको जीतते हैं, वे सर्वथा सिद्धिको पाते हैं। मनको कोई ही अकस्मात् जीत सकता है, नहीं तो यह गृहस्थाश्रममें अभ्यास करके जीता जाता है । यह अभ्यास निग्रंथतामें बहुत हो सकता है । फिर भी यदि कोई सामान्य परिचय करना चाहे तो उसका मुख्य मार्ग यही है कि मन जो दुरिच्छा करे, उसे भूल जाना, और वैसा नहीं करना । जब मन शब्द, स्पर्श आदि विलासकी इच्छा करे तब उसे नहीं देना । संक्षेपमें हमें इससे प्रेरित न होना चाहिये परन्तु इसे प्रेरित करना चाहिये । मनको मोक्ष-मार्गके चिन्तनमें लगाना चाहिये । जितेन्द्रियता विना सब प्रकारकी उपाधियाँ खड़ी ही रहती हैं, त्याग अत्यागके समान हो जाता है। लोकलज्जासे उसे निबाहना पड़ता है । अतएव अभ्यास करके भी मनको स्वाधीनतामें लाकर अवश्य आत्महित करना चाहिये । ६९ ब्रह्मचर्यकी नौ बा. ज्ञानी लोगोंने थोड़े शब्दोंमें कैसे भेद और कैसा स्वरूप बताया है ? इससे कितनी अधिक आत्मोन्नति होती है ? ब्रह्मचर्य जैसे गंभीर विषयका स्वरूप संक्षेपमें अत्यन्त चमत्कारिक रीतिसे कह दिया है । ब्रह्मचर्यको एक सुंदर वृक्ष और उसकी रक्षा करनेवाली नव विधियोंको उसकी बाड़का रूप देकर जिससे आचार पालनेमें विशेष स्मृति रह सके ऐसी सरलता कर दी है । इन नौ बाड़ोंको यथार्थरूपसे यहाँ कहता हूँ। १ वसति-ब्रह्मचारी साधुको स्त्री, पशु अथवा नपुंसकसे संयुक्त स्थानमें नहीं रहना चाहिये । स्त्रियाँ दो प्रकारकी हैं:-मनुष्यिणी और देवांगना । इनमें प्रत्येकके फिर दो दो भेद हैं । एक तो मूल, और दूसरा स्त्रीकी मूर्ति अथवा चित्र । इनमेंसे जहाँ किसी भी प्रकारकी स्त्री हो, वहाँ ब्रह्मचारी साधुको न रहना चाहिये, क्योंकि ये विकारके हेतु हैं । पशुका अर्थ तिर्यचिणी होता है । जिस स्थानमें गाय, भैंस इत्यादि हों उस स्थानमें नहीं रहना चाहिये । तथा जहाँ पंडग अर्थात् नपुंसकका वास हो वहाँ भी नहीं रहना चाहिये । इस प्रकारका वास ब्रह्मचर्यकी हानि करता है । उनकी कामचेष्टा, हाव, भाव इत्यादि विकार मनको भ्रष्ट करते हैं। २ कथा-केवल अकेली स्त्रियोंको ही अथवा एक ही स्त्रीको ब्रह्मचारीको धर्मोपदेश नहीं करना चाहिये । कथा मोहकी उत्पत्ति रूप है । ब्रह्मचारीको स्त्रीके रूप, कामविलाससंबंधी प्रन्योंको नहीं पढ़ना चाहिये, तथा जिससे चित्त चलायमान हो ऐसी किसी भी तरहकी शृंगारसंबंधी बातचीत ब्रह्मचारीको नहीं करनी चाहिये । ३ आसन-स्त्रियोंके साथ एक आसनपर न बैठना चाहिये तथा जिस जगह स्त्री बैठ चुकी हो उस स्थानमें दो घड़ीतक ब्रह्मचारीको नहीं बैठना चाहिये । यह सियोंकी स्मृतिका कारण है। इससे विकारकी उत्पत्ति होती है, ऐसा भगवान्ने कहा है।
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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