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________________ सुखके विषय में विचार] मोक्षमाला सकती । मैंने जिस कारणसे लक्ष्मी उपार्जन की थी, वह कारण मैंने पहले आपसे कह दिया है। अब आपकी जैसी इच्छा हो वैसा करें। आप विद्वान् हैं, मैं विद्वानोंको चाहता हूँ। आपकी अभिलाषा हो तो धर्मध्यानमें संलग्न होकर कुटुम्ब सहित आप यहीं खुशीसे रहें । आपकी आजीविकाकी सरल योजना जैसा आप कहें वैसी मैं आनन्दसे करा दूं । आप यहाँ शास्त्र अध्ययन और सद्वस्तुका उपदेश करें। मिथ्यारंभोपाधिकी लोलुपतामें, मैं समझता हूँ, न पड़ें। आगे जैसी आपकी इच्छा ।। __पंडित-आपने अपने अनुभवकी बहुत मनन करने योग्य आख्यायिका कही । आप अवश्य ही कोई महात्मा हैं, पुण्यानुबंधी पुण्यवान् जीव हैं, विवेकी हैं, और आपकी विचार-शक्ति अद्भुत है । मैं दरिद्रतासे तंग आकर जो इच्छा करता था, वह इच्छा एकांतिक थी। ये सब प्रकारके विवेकपूर्ण विचार मैंने नहीं किये थे । मैं चाहे जैसा भी विद्वान् हूँ फिर भी ऐसा अनुभव, ऐसी विवेक-शक्ति मुझमें नहीं है, यह बात मैं ठीक ही कहता हूँ। आपने मेरे लिये जो योजना बताई है, उसके लिये मैं आपका बहुत उपकार मानता हूँ और उसे नम्रतापूर्वक स्वीकार करनेके लिये मैं हर्ष प्रगट करता हूँ। मैं उपाधि नहीं चाहता । लक्ष्मीका फंद उपाधि ही देता है । आपका अनुभवसिद्ध कथन मुझे बहुत अच्छा लगा है। संसार जल ही रहा है, इसमें सुख नहीं । आपने उपाधि रहित मुनि-सुखकी प्रशंसा की वह सत्य है । वह सन्मार्ग परिणाममें सर्वोपाधि, आधि व्याधि तथा अज्ञान भावसे रहित शाश्वत मोक्षका हेतु है। ६६ सुखके विषयमें विचार धनाढ्य-आपको मेरी बात रुचिकर हुई इससे मुझे निरभिमानपूर्वक आनंद प्राप्त हुआ है। आपके लिये मैं योग्य योजना करूँगा। मैं अपने सामान्य विचारोंको कथानुरूप यहाँ कहनेकी आज्ञा चाहता हूँ। जो केवल लक्ष्मीके उपार्जन करनेमें कपट लोभ और मायामें फंसे परे हैं, वे बहुत दुःखी हैं । वे उसका पूरा अथवा अधूरा उपयोग नहीं कर सकते । वे केवल उपाधि ही भोगते हैं, वे असंख्यात पाप करते हैं, उन्हें काल अचानक उठा ले जाता है, ये जीव अधोगतिको प्राप्त होकर अनंत संसारकी वृद्धि करते हैं, मिले हुए मनुष्य-भवको निर्माल्य कर डालते हैं, जिससे वे निरन्तर दुःखी ही रहते हैं। जिन्होंने अपनी आजीविका जितने साधन मात्रको अल्पारंभसे रक्खा है, जो शुद्ध एकपत्नीव्रत, संतोष, परात्माकी रक्षा, यम, नियम, परोपकार अल्प राग, अल्प द्रव्यमाया, सत्य और शास्त्राध्ययन रखते हैं, जो सत्पुरुषोंकी सेवा करते हैं, जिन्होंने निर्ग्रन्थताका मनोरथ रक्खा है, जो बहुत प्रकारसे संसारसे त्यागीके समान रहते हैं, जिनका वैराग्य और विवेक उत्कृष्ट है, ऐसे पुरुष पवित्रतामें सुखपूर्वक काल व्यतीत करते हैं। जो सब प्रकारके आरंभ और परिग्रहसे रहित हुए हैं; जो द्रव्यसे, क्षेत्रसे, कालसे और भावसे अप्रतिबंधरूपसे विचरते हैं, जो शत्रु-मित्रके प्रति समान दृष्टि रखते हैं और जिनका काल शुद्ध आत्म
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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