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________________ श्रीमद् राजचन्द्र [ অমুল বলবিন্যা ध्यानमें व्यतीत होता है, और जो स्वाध्याय एवं ध्यानमें लीन हैं, ऐसे जितेन्द्रिय और जितकषाय वे निर्मथ परम सुखी हैं। जिन्होंने सब घनघाती कोका क्षय किया है, जिनके चार अघाती-कर्म कृश पड़ गये हैं, जो मुक्त हैं, जो अनंतज्ञानी और अनंतदर्शी हैं वे ही सम्पूर्ण सुखी हैं। वे मोक्षमें अनंत जीवनके अनंत सुखमें सर्व कर्मसे विरक्त होकर विराजते हैं । इस प्रकार सत्पुरुषोंद्वारा कहा हुआ मत मुझे मान्य है । पहला तो मुझे त्याज्य है । दूसरा अभी मान्य है, और बहुत अंशमें इसे ग्रहण करनेका मेरा उपदेश है। तीसरा बहुत मान्य है, और चौथा तो सर्वमान्य और सच्चिदानन्द स्वरूप है। इस प्रकार पंडितजी आपकी और मेरी सुखके संबंधमें बातचीत हुई । ज्यों ज्यों प्रसंग मिलते जायँगे त्यों त्यों इन बातोंपर चर्चा और विचार करते जायेंगे । इन विचारोंके आपसे कहनेसे मुझे बहुत आनन्द हुआ है । आप ऐसे विचारोंके अनुकूल हुए हैं इससे और भी आनन्दमें वृद्धि हुई है। इस तरह परस्पर बातचीत करते करते वे हर्षके साथ समाधि-भावसे सो गये । जो विवेकी इस सुखके विषयपर विचार करेंगे वे बहुत तत्त्व और आत्मश्रेणीकी उत्कृष्टताको प्राप्त करेंगे । इसमें कहे हुए अल्पारंभी, निरारंभी और सर्वमुक्तके लक्षण ध्यानपूर्वक मनन करने योग्य हैं । जैसे बने तैसे अल्पारंभी होकर समभावसे जन-समुदायके हितकी ओर लगना; परोपकार, दया, शान्ति, क्षमा और पवित्रताका सेवन करना यह बहुत सुखदायक है । निग्रंथताके विषयमें तो विशेष कहनेकी आवश्यकता नहीं । मुक्तात्मा अनंत सुखमय ही है। ६७ अमूल्य तत्त्वविचार ___ हरिगीत छंद बहुत पुण्यके पुंजसे इस शुभ मानव देहकी प्राप्ति हुई; तो भी अरे रे ! भव-चक्रका एक भी चक्कर दूर नहीं हुआ । सुखको प्राप्त करनेसे सुख दूर होता जाता है, इसे जरा अपने ध्यानमें लो। अहो ! इस क्षण क्षणमें होनेवाले भयंकर भाव-मरणमें तुम क्यों लवलीन हो रहे हो ? ॥ १ ॥ यदि तुम्हारी लक्ष्मी और सत्ता बढ़ गई, तो कहो तो सही कि तुम्हारा बढ़ ही क्या गया ? क्या कुटुम्ब और परिवारके बढ़नेसे तुम अपनी बढ़ती मानते हो ? हर्गिज़ ऐसा मत मानों; क्योंकि संसारका बढ़ना मानों मनुष्य देहको हार जाना है । अहो ! इसका तुमको एक पलभर भी विचार नहीं होता ॥२॥ ६७ अमूल्य तत्त्वविचार हरिगीत छंद बहु पुण्यकेरा पुंजयी शुभ देह मानवनो मन्यो; तोये अरे! भवचक्रनो आंटो नहिं एक्के टन्यो; सुख प्रास करतां सुख टळे छे लेश ए लक्षे लहो; क्षण क्षण भयंकर भावमरणे कां अहो राची रहो ॥१॥ लक्ष्मी अने अधिकार वधतां, शुं वध्यु ते तो कहो ? शु कुटुंब के परिवारथी वधवापणुं, ए नय ग्रहो, वधवापणुं संसारर्नु नर देहने हारी जवो, एनो विचार नहीं अहो हो !.एक पळ तमने हवो !!!॥२॥ ..
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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