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________________ ६४ श्रीमद् राजचन्द्र [मुखके विषय में विचार सकते हैं । इसलिये धर्मके संबंधमें गृहस्थवर्गको मैं प्रायः उपदेश देकर यम-नियममें लाता हूँ। प्रति सप्ताह हमारे यहाँ लगभग पाँचसौ सद्गृहस्थोंकी सभा भरती है । आठ दिनका नया अनुभव और शेष पहिलेका धर्मानुभव मैं इन लोगोंको दो तीन मुहूर्त तक उपदेश करता हूँ। मेरी स्त्री धर्मशास्त्रकी कुछ जानकार होनेसे वह भी स्त्रीवर्गको उत्तम यम-नियमका उपदेश करके साप्ताहिक सभा भरती है। मेरे पुत्र भी शास्त्रोंका यथाशक्य परिचय रखते हैं। विद्वानोंका सन्मान, अतिथियोंकी विनय, और सामान्य सत्यता-एक ही भाव-ये नियम बहुधा मेरे अनुचर भी पालते हैं । इस कारण ये सब साता भोग सकते हैं । लक्ष्मीके साथ साथ मेरी नीति, धर्म, सद्गुण और विनयने जन-समुदायपर बहुत अच्छा असर डाला है । इतना तक हो गया है कि राजातक भी मेरी नीतिकी बातको मानता है । यह सब मैं आम-प्रशंसाके लिये नहीं कह रहा, यह बात आप ध्यानमें रक्खें । केवल आपकी पूंछी हुई बातके स्पष्टीकरणके लिये संक्षेपमें यह सब कहा है। ६५ सुखके विषयमें विचार इन सब बातोंसे मैं सुखी हूँ, ऐसा आपको मालूम हो सकेगा और सामान्य विचारसे आप मुझे बहुत सुखी मानें भी तो मान सकते हैं । धर्म, शील और नीतिसे तथा शास्त्रावधानसे मुझे जो आनंद मिलता है वह अवर्णनीय है । परन्तु तत्त्वदृष्टिसे मैं सुखी नहीं माना जा सकता । जबतक सब प्रकारसे बाह्य और अभ्यंतर परिग्रहका मैंने त्याग नहीं किया तबतक रागद्वेषका भाव मौजूद है । यद्यपि वह बहुत अंशमें नहीं, परन्तु है अवश्य, इसलिये वहाँ उपाधि भी है । सर्व-संग-परित्याग करनेकी मेरी सम्पूर्ण आकांक्षा है, परन्तु जबतक ऐसा नहीं हुआ तबतक किसी प्रियजनका वियोग, व्यवहारमें हानि, कुटुम्बियोंका दुःख, ये थोड़े अंशमें भी उपाधि उत्पन्न कर सकते हैं । अपनी देहमें मौतके सिवाय अन्य नाना प्रकारके रोगोंका होना संभव है । इसलिये जबतक सम्पूर्ण निग्रंथ, बाह्याभ्यंतर परिग्रहका त्याग, अल्पारंभका त्याग, यह सब नहीं हुआ, तबतक मैं अपनेको सर्वथा सुखी नहीं मानता। अब आपको तत्त्वकी दृष्टिसे विचार करनेसे मालूम पड़ेगा कि लक्ष्मी, स्त्री, पुत्र अथवा कुटुम्बसे सुख नहीं होता, और यदि इसको सुख गिनें तो जिस समय मेरी स्थिति हीन हो गई थी उस समय यह सुख कहाँ चला गया था जिसका वियोग है, जो क्षणभंगुर है और जहाँ अव्याबाधपना नहीं है, वह सम्पूर्ण अथवा वास्तविक सुख नहीं है । इस कारण मैं अपने आपको सुखी नहीं कह सकता। मैं बहुत विचार विचारकर व्यापार और कारबार करता था, तो भी मुझे आरंभोपाधि, अनीति और लेशमात्र भी कपटका सेवन करना नहीं पड़ा, यह तो नहीं कहा जा सकता। अनेक प्रकारके आरंभ और कपटका मुझे सेवन करना पड़ा था। आप यदि देवोपासनासे लक्ष्मी प्राप्त करनेका विचार करते हों तो वह यदि पुण्य न होगा तो कभी भी वह मिलनेवाली नहीं । पुण्यसे प्राप्त की हुई लक्ष्मीसे महारंभ, कपट और मान इत्यादिका बढ़ना यह महापापका कारण है । पाप नरकमें डालता है। पापसे आत्मा महान् मनुष्य-देहको व्यर्थ गुमा देती है । एक तो मानों पुण्यको खा जाना, और ऊपरसे पापका बंध करना । लक्ष्मीकी और उसके द्वारा समस्त संसारकी उपाधि भोगना, मैं समझता हूँ, कि यह विवेकी आत्माको मान्य नहीं हो
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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