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________________ श्रीमद् राजचन्द्र [विवेकका अर्थ भी वह उसे नहीं पा सकता । एक पलको व्यर्थ खोना एक भव हार जानेके समान है । यह तत्त्वकी दृष्टिस सिद्ध है। ५१ विवेकका अर्थ लघु शिष्य-भगवन् ! आप हमें जगह जगह कहते आये हैं कि विवेक महान् श्रेयस्कर है। विवेक अन्धकारमें पड़ी हुई आत्माको पहचाननेके लिये दीपक है। विवेकसे धर्म टिकता है। जहाँ विवेक नहीं वहाँ धर्म नहीं; तो विवेक किसे कहते हैं, यह हमें कहिये । गुरु-आयुष्मानों | सत्यासत्यको उसके स्वरूपसे समझनेका नाम विवेक है। ___ लघु शिष्य-सत्यको सत्य, और असत्यको असत्य कहना तो सभी समझते हैं । तो महाराज ! क्या इन लोगोंने धर्मके मूलको पा लिया, यह कहा जा सकता है ? गुरु-तुम लोग जो बात कहते हो उसका कोई दृष्टान्त दो। ___ लघु शिष्य-हम स्वयं कडुवेको कडुवा ही कहते हैं, मधुरको मधुर कहते हैं, जहरको ज़हर और अमृतको अमृत कहते हैं। गुरु-आयुष्मानों ! ये समस्त द्रव्य पदार्थ हैं। परन्तु आत्मामें क्या कड़वास, क्या मिठास, क्या जहर और क्या अमृत है ! इन भाव पदार्थोकी क्या इससे परीक्षा हो सकती है ! लघु शिष्य-भगवन् ! इस ओर तो हमारा लक्ष्य भी नहीं । गुरु-इसलिये यही समझना चाहिये कि ज्ञानदर्शनरूप आत्माके सत्यभाव पदार्थको अज्ञान और अदर्शनरूपी असत् वस्तुओंने घेर लिया है । इसमें इतनी अधिक मिश्रता आ गई है कि परीक्षा करना अत्यन्त ही दुर्लभ है। संसारके सुखोंको आत्माके अनंत बार भोगनेपर भी उनमेंसे अभी भी आत्माका मोह नहीं छूटा, और आत्माने उन्हें अमृतके तुल्य गिना, यह अविवेक है। कारण कि संसार कडुवा है तथा यह कडवे विपाकको देता है । इसी तरह आत्माने कडुवे विपाककी औषध रूप वैराग्यको कडुवा गिना यह भी अविवेक है । ज्ञान दर्शन आदि गुणोंको अज्ञानदर्शनने घेरकर जो मिश्रता कर डाली है, उसे पहचानकर भाव-अमृतमें आनेका नाम विवेक है। अब कहो कि विवेक यह कैसी वस्तु सिद्ध हुई। लघु शिष्य-अहो ! विवेक ही धर्मका मूल और धर्मका रक्षक कहलाता है, यह सत्य है। आत्माके स्वरूपको विवेकके विना नहीं पहचान सकते, यह भी सत्य है। ज्ञान, शील, धर्म, तत्त्व और तप ये सब विवेकके विना उदित नहीं होते, यह आपका कहना यथार्थ है । जो विवेकी नहीं, वह अज्ञानी और मंद है । वही पुरुष मतभेद और मिथ्यादर्शनमें लिपटा रहता है। आपकी विवेकसंबंधी शिक्षाका हम निरन्तर मनन करेंगे। ५२ ज्ञानियोंने वैराग्यका उपदेश क्यों दिया? संसारके स्वरूपके संबंधमें पहले कुछ कहा है । वह तुम्हारे ध्यानमें होगा । ज्ञानियोंने इसे अनंत खेदमय, अनंत दुःखमय, अव्यवस्थित, अस्थिर और अनित्य कहा है। ये विशेषण लगानेके पहले उन्होंने संसारका सम्पूर्ण विचार किया मालूम होता है । अनंत भवका पर्यटन, अनंत कालका अज्ञान, अनंत जीवनका व्याघात, अनंत मरण, और अनंत शोक सहित आत्मा संसार-चक्रमें भ्रमण किया करती है।
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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